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________________ ३८२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अष्टविध कर्म और उनकी उत्तर प्रकृतियाँ कर्म परमाणुओं द्वारा आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकट होने में अवरोध पैदा किया जाता है। उस अवरोध के भेदों के अनुसार कर्म-विभाग किये जाते हैं। वे आठ प्रकार के हैं-१. ज्ञानवरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय।८३ इनको मूल प्रकृतियाँ कहते हैं तथा इनके अवान्तर भेद को उत्तर प्रकृतियाँ कहते हैं। इन प्रकृतियों के सम्बन्ध में आचारांग और सूत्रकृतांग में कोई उल्लेख नहीं है तथा स्थानांग व भगवती में आठ मूलप्रकृतियों का ही विवरण है। समवायांग में दर्शनावरणीय, मोहनीय और नाम कर्म की उत्तरप्रकृतियों को छोड़कर शेष कर्मों की उत्तरप्रकृतियों की चर्चा है। प्रज्ञापना में कर्म की मूल एवं उनकी उत्तर प्रकृतियों का पूर्ण विवरण है।१८४ १. ज्ञानावरणीय कर्म- जो आत्मा के विशेष ग्रहण रूप ज्ञान गुण को ढकता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है। जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को आवरित करते हैं, तो सूर्य का प्रकाश तिरोहित हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा की सहज ज्ञान की उपलब्धि में बाधक होता है जिससे आत्मा का ज्ञान प्रकट नहीं हो पाता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म के उदय से जीव के ज्ञान दर्शन गुण पर मात्र आवरण आता है, उससे ज्ञान-दर्शन गुण पूर्णतया नष्ट नहीं होते। ज्ञानावरणीय कर्म के भेद- "पंचविहे पण्णत्ते। तंजहा-आभिणिबोहियणाणवरणिज्जे जाव केवलणाणावरणिज्जे'८५ ज्ञानवरणीय कर्म पाँच प्रकार के कहे गए हैं - (१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण (३) अवधिज्ञानावरण (४) मन:पर्यायज्ञानावरण (५) केवलज्ञानावरण। ऐन्द्रिक एवं मानसिक ज्ञान-क्षमता पर आवरण मतिज्ञानावरण है। बौद्धिक अथवा आगमज्ञान की अनुपलब्धि होना श्रुतज्ञानावरण है। अतीन्द्रिय ज्ञान क्षमता पर आवरण अवधिज्ञानावरण है। पर मानसिक अवस्थाओं की ज्ञान-प्राप्ति का अभाव मनःपर्यायज्ञानावरण है। पूर्णज्ञान प्राप्त करने की क्षमता पर आवरण केवलज्ञानावरण है। २. दर्शनावरणीय कर्म- जो आत्मा के सामान्य-ग्रहण रूप दर्शन गुण को रोकता है, वह दर्शनावरणीय कर्म है। इसके परिणामस्वरूप जीव पदार्थ का यथार्थ दर्शन नहीं कर पाता। इस कर्म की तुलना दरवाजे पर खड़े द्वारपाल से की जा सकती है, जो राजा के दर्शन में बाधक बनता है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म व्यक्ति के ऐन्द्रिक-संवेदन में बाधक बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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