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________________ ८. पूर्वकृत कर्मवाद ३८१ नहीं किया जा सकता । जैसे-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्म का रूपान्तर नहीं होता। इसी प्रकार आयुष्य कर्म भी एक दूसरे में संक्रमित नहीं होते, जैसे- नरकायु के मनुष्यायु में या तियंचायु से मनुष्यायु में आदि । संक्रमण के चार भेद हैं- (१) प्रकृति संक्रमण (२) स्थिति संक्रमण (३) अनुभाग संक्रमण (४) प्रदेश संक्रमण । उपशमनं - कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उनके फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना या उन्हें किसी काल-विशेष के लिए फल देने में अक्षम बना देना उपशमन है। सत्ता और उपशमन में मुख्य अन्तर है कि सत्ता में कर्मविपाक स्वाभाविक रूप से स्थगित रहता है जबकि उपशमन में कर्मविपाक को स्थगित किया जाता है। उपशमन की तुलना राख से ढकी हुई अग्नि से की जा सकती है। जिस प्रकार राख से दबी हुई अग्नि उस आवरण के दूर होते ही पुनः प्रज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार उपशमन की अवस्था के समाप्त होते ही कर्म पुनः उदय में आकर अपना फल देता है। निधत्ति - जिसमें कर्मों का उदय और संक्रमण न हो सके किन्तु उद्वर्तन - अपवर्तन की संभावना हो, वह निधत्ति है। जैसे-मलेरिया, तपेदिक, हैजा आदि के विषाणु शरीर में भीतर प्रवेश हो जाय और वहाँ उनमें बाहरी प्रभाव से हानि-वृद्धि होती रहे, परन्तु वे बाहर में रोग के रूप में प्रकट नहीं हो तथा दवा के प्रभाव से भी उनका रूपान्तरण नहीं हो । इसी प्रकार सत्ता में स्थित जिन कर्मों का कषाय के घटने-बढ़ने से उनके स्थिति व अनुभाग में घट-बढ़, अपकर्षण- उत्कर्षण हो परन्तु उनका संक्रमण अर्थात् अन्य प्रकृति रूप रूपान्तरण तथा उदय नहीं हो ऐसी कर्म की अवस्था निधत्ति कहलाती है। यह चार प्रकार की है- (१) प्रकृति निधत्ति (२) स्थिति निधत्ति (३) अनुभाव निधत्ति (४) प्रदेश निधत्ति । १०. निकाचना- इस अवस्था में कर्मों को उसी रूप में भोगना अनिवार्य होता है, जिस रूप में उन कर्मों का बन्ध हुआ करता है। इसमें न तो कर्मों की उदीरणा सम्भव है और न उद्वर्तना- अपवर्तना । निकाचना की स्थिति में कर्मों का बन्धन इतना प्रगाढ़ होता है कि उसकी काल मर्यादा एवं तीव्रता (परिमाण) में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है और न ही समय के पूर्व उसका भोग किया जा सकता है। जैसे- आगामी भव का बंधा हुआ आयु कर्म। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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