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________________ ३८० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण की वेदना की अनुभूति नहीं होती। कषाय के अभाव में ईर्यापथिक क्रिया के कारण जो बन्ध होता है उसका मात्र प्रदेशोदय होता है। जो कर्म परमाणु अपनी फलानुभूति करवाकर आत्मा से निर्जरित होते हैं, उनका उदय विपाकोदय कहलाता है। विपाकोदय की अवस्था में तो प्रदेशोदय होता ही है, लेकिन प्रदेशोदय की अवस्था में विपाकोदय हो ही, यह अनिवार्य नहीं है। अपवर्तन या अपकर्षण- पूर्व में बन्धे हुए कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग (रस) को वर्तमान के कर्म द्वारा न्यून कर देना अपवर्तन है। अपवर्तन उद्वर्तन से विपरीत अवस्था है। पहले किसी अशुभ कर्म का बन्ध करने के पश्चात् जीव यदि अच्छे कर्म करता है तो उसके पहले बान्धे हुए कर्मों की स्थिति व फलदान शक्ति घट जाती है। जैसे- श्रेणिक ने पहले क्रूर कर्म करके सातवीं नरक की आयु का बन्ध कर लिया था। बाद में वह भगवान महावीर की शरण व समवशरण में आया तो उसे सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। जिसके कारण उसे कृत कर्मों पर पाश्चात्ताप हुआ तो शुभ भावों के प्रभाव से उसकी बान्धी हुई सातवीं नरक की आयु घटकर पहले नरक की रह गई। जैन कर्म सिद्धान्त में उद्वर्तन एवं अपवर्तन की अवस्थाओं से यह प्रतिध्वनित होता है कि प्रयत्न विशेष से पूर्व बद्ध कर्म की काल, स्थिति एवं फल की तीव्रता को मन्दता में परिवर्तन किया जा सकता है। ७. संक्रमण- कर्म-प्रकृति के पुद्गलों का परिणमन अन्य सजातीय प्रकृति में हो जाना संक्रमण कहलाता है। जीव के वर्तमान परिणामों के कारण से जो प्रकृति बंधी थी, उसका न्यूनाधिक व अन्य प्रकृति रूप परिवर्तन व परिणमन हो जाना कर्म का संक्रमित होना है। इस प्रकार अवान्तर कर्मप्रकृतियों (उत्तर कर्मप्रकृतियाँ) का अदल-बदल होना संक्रमण के रूप में जाना जाता है। इसमें आत्मा पूर्वबद्ध कर्मों की अवान्तर प्रकृतियों, समयावधि, तीव्रता एवं परिमाण (मात्रा) को परिवर्तित करता है। उदाहरणार्थ-पूर्व में बद्ध दुःखद संवेदन रूप असातावेदनीय कर्म का नवीन सातावेदनीय कर्म का बन्ध करते समय ही सातावेदनीय कर्मप्रकृति के साथ मिलाकर उसका सातावेदनीय कर्म में संक्रमण किया जा सकता है। संक्रमण कर्मों के अवान्तर भेदों में ही होता है, मूल भेदों में नहीं होता है अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म का आयु कर्म में संक्रमण नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कुछ अवान्तर कर्म ऐसे हैं जिनका रूपान्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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