SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३. ४. ३७९ पूर्वकृत कर्मवाद होने के कारण जितने समय के लिए आत्मा और कर्म - पुगलों का सम्बन्ध बना रहता है, उसे सत्ता काल कहते हैं। इस अवस्था में कर्म अपना फल न प्रदान करते हुए आत्मा से सम्बद्ध रहता है। सत्ताकाल के समाप्त होने के बाद ही कर्म अपना फल देते हैं। उद्वर्तना अथवा उत्कर्षण- बंधे हुए कर्म की स्थिति और रस ( अनुभाग ) का बढना उद्वर्तना कहलाता है। कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग का निश्चय तो बन्ध के ही समय जीव में विद्यमान कषाय भाव की तीव्रता के अनुसार हो जाता है। किन्तु बन्धे हुए कर्म की स्थिति एवं अनुभाग में वृद्धि पुनः पहले से अधिक पाप प्रवृत्ति करने तथा उसमें अधिक रस लेने से होती है। उदाहरणार्थ- पहले किसी ने डरते-डरते छोटी सी वस्तु चुराकर लोभ की प्रवृत्ति की, फिर वह डाकुओं के गिरोह में मिल गया तो उसकी लोभ की प्रवृत्ति का पोषण हो गया, वह बहुत बढ गई तथा अधिक काल तक टिकाऊ भी हो गई, अब वह निधड़क हो डाका डालने व हत्याएँ करने लगा। इस प्रकार उसकी पूर्व की लोभ की वृत्ति का पोषण होना, उसकी स्थिति व रस (अनुभाग) का बढ़ जाना "उद्वर्तना या उत्कर्षण" कहा जाता है। उदीरणा - नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा है। जिस प्रकार शरीर में स्थित कोई विकार कालान्तर में रोग के रूप में फल देने वाला है । टीका लगवाकर या दवा आदि के प्रयत्न द्वारा पहले ही उस विकार को उभार कर फल भोग लेने से उस विकार से मुक्ति मिल जाती है। श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा उदीरणा का मनोवैज्ञानिक स्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि अपने द्वारा पूर्व में किए हुए पापों या दोषों को स्मृति पटल पर लाकर गुरु के समक्ष प्रकट करना, उनकी आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना उदीरणा है। १८२ उदय- कर्म का फलित होना, उदय है। इस अवस्था में पूर्वबद्ध कर्म अपना फल प्रदान करते हैं। उदय दो प्रकार का है- (१) प्रदेशोदय (२) विपाकौदय। सभी कर्म अपना फल प्रदान करते हैं लेकिन उनमें से कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जो फल देते हुए भी भोक्ता को फल की अनुभूति नहीं कराते हैं और निर्जरित हो जाते हैं। ऐसे कर्मों का उदय प्रदेशोदय कहलाता है। जैसे- ऑपरेशन करते समय अचेतन अवस्था में शल्यक्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy