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________________ पूर्वकृत कर्मवाद ३८३ दर्शनावरणीय कर्म के भेद-"पंचविहे पण्णत्ते। तंजहा-णिद्दा जाव थीणगिद्धी। चउब्बिहे पण्णते। तंजहा-चक्खुदंसणावरणिज्जे जाव केवलदसणा- वरणिज्जे। १८६ दर्शनावरणीय कर्म की ९ उत्तरप्रकृतियाँ है, वे इस प्रकार हैं- (१) चक्षुदर्शनावरण (२) अचक्षुदर्शनावरण (३) अवधिदर्शनावरण (४) केवलदर्शनावरण (५) निद्रा (६) निद्रानिद्रा (७) प्रचला (८) प्रचलाप्रचला (९) स्त्यानगृद्धि। नेत्र-शक्ति का अवरुद्ध हो जाना चक्षुदर्शनावरण है। नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों की सामान्य अनुभव शक्ति पर आवरण आ जाना अचक्षुदर्शनावरण है। अतीन्द्रिय दर्शन की उपलब्धि में अवरोध आना अवधिदर्शनावरण है। त्रिकालिक घटनाओं के बोध का आवरित होना केवलदर्शनावरण है। सामान्य शयन निद्रा है। गहरी नींद निद्रानिद्रा है। बैठे-बैठे आने वाली निद्रा प्रचला है। चलते-फिरते आने वाली निद्रा प्रचला-प्रचला है। दिन अथवा रात्रि में सोचे हुए कार्य-विशेष को सुप्तावस्था में सम्पन्न करने का सामर्थ्य उत्पन्न होना स्त्यानगृद्धि है। ३. वेदनीय कर्म- जो सुख-दुःख का अनुभव कराए, वह वेदनीय कर्म है। वेदनीय कर्म के भेद-“दुविहे पण्णत्ते। तंजहा-सातावेयणिज्जे य असातावेयणिज्जे य८७ वेदनीय कर्म दो प्रकार का है- (१) सातावेदनीय (२) असातावेदनीय। अनुकूल विषयों की प्राप्ति से होने वाला सुख का संवेदन सातावेदनीय है तथा प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति से होने वाला दुःख का संवदेन असातावेदनीय है। . ४. मोहनीय कर्म- जो आत्मा को मोहित करे, वह मोहनीय कर्म है। इन कर्म परमाणुओं से आत्मा की विवेक शक्ति कुण्ठित होती है। जैसे- मदिरा आदि नशीली वस्तुओं के सेवन से व्यक्ति का विवेक और चरित्र दूषित हो जाता है, ठीक उसी प्रकार मोहनीय कर्म के कारण व्यक्ति की दृष्टि और आचरण दूषित हो जाता है। मोहनीय कर्म के भेद-"दुविहे पण्णत्ते। तंजहा-दंपणमोहणिज्जे य चरित्रमोहणिज्जे य... दुगुंछा'८ मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद हैं- (१) दर्शन (२) चारित्र। अवान्तर भेद कुल २८ हैं। सम्यक्त्वमोहनीय कर्म में कुछ क्षण के लिए जीव में सम्यक्त्व की व्युत्पत्ति होती है और पुन: मलिनता आ जाती है। मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से जीव की तत्त्व श्रद्धा मिथ्या होती है। सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व का समन्वित रूप मिश्रमोहनीय कर्म है। ये तीनों भेद दर्शन मोहनीय के हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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