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पूर्वकृत कर्मवाद ३७५ उस साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता, इसके विपरीत जैन दर्शन में कर्म-सम्बन्धी विचार सूक्ष्म, व्यवस्थित और अतिविस्तृत है।" इसी तथ्य को परिपुष्ट करते हुए डॉ. सागरमल जैन का कथन है कि “यद्यपि भारतीय चिन्तन की जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में कर्मसिद्धान्त का विकास हुआ है, लेकिन उसके सर्वांगीण विकास का श्रेय जैन परम्परा को ही है।" इन विवरणों से यही प्रतिध्वनित होता है कि कर्मसिद्धान्त के आविर्भाव एवं विकास में जैन परम्परा का विशिष्ट योगदान है।५७० कर्म का अर्थ एवं स्वरूप
साधारण लोग खाना, पीना, सोना, चलना आदि किसी भी हलचल के लिए तथा काम, धन्धे या व्यवसाय के अभिप्राय से “कर्म" शब्द का प्रयोग करते हैं।
शास्त्रों में 'कर्म' के विभिन्न अर्थ हैं। कर्मकाण्डी मीमांसक यज्ञयाग आदि क्रिया कलाप अर्थ में; स्मार्त विद्वान् चार वर्णों और चार आश्रमों के नियत कर्म रूप अर्थ में; वैयाकरण कर्ता जिसको अपनी क्रिया के द्वारा पाना चाहता है उस अर्थ में; नैयायिक लोग उत्क्षेपण आदि पाँच सांकेतिक कर्मों में 'कर्म' शब्द का व्यवहार करते हैं।
जैन दर्शन में क्रिया को ही कर्म कहा गया है और क्रिया में जीव की शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक तीनों ही प्रकार की क्रियाओं को समाविष्ट किया गया है। शास्त्रीय भाषा में इन्हें योग कहा जाता है। लेकिन जैन परम्परा में कर्म का यह क्रियापरक अर्थ 'कर्म' शब्द की एक आंशिक व्याख्या ही प्रस्तुत करता है। शेष
आंशिक व्याख्या को प्रस्तुत करते हुए आचार्य देवेन्द्र सूरि कर्म को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं
"कीरइ जिएण हेउहि, जेणं तो भण्णए कम्म ११ जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है। इस प्रकार जैन दर्शन में क्रिया और क्रिया के हेतु या कारण दोनों को कर्म कहा गया है।
___ कर्म के दो पक्ष हैं-१. राग-द्वेष, कषाय आदि मनोभाव, २.कर्मपुद्गल। कर्मपुद्गल क्रिया का हेतु है और रागद्वेषादि क्रिया है। कर्मपुद्गल से तात्पर्य उन जड़ परमाणुओं से है जो प्राणी की किसी क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर, उससे अपना सम्बन्ध स्थापित कर कर्मशरीर की रचना करते हैं और समय-विशेष के पकने पर अपने फल के रूप में विशेष प्रकार की अनुभूतियाँ उत्पन्न कर अलग हो जाते हैं। इन्हें द्रव्य कर्म कहते है। "उक्तज्ञानावरणादिदव्यकर्मोदयजनिता आत्मनोऽज्ञानराग- मिथ्यादर्शनादिपरिणामविशेषा भावकर्माणि' १७२ अर्थात्
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