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३७६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों के उदय से होने वाले आत्मा के अज्ञान, राग, मिथ्यादर्शन आदि परिणामविशेष भाव कर्म हैं। द्रव्य कर्म के होने में भावकर्म और भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म कारण है। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, इसी प्रकार द्रव्यकर्म से भावकर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म का सिलसिला भी अनादि है।
बन्धन के हेतु कषाय, राग, द्वेष, मोह आदि मनोभाव भी आत्मा में स्वतः उत्पन्न नहीं होते, अपितु कर्म-वर्गणा के विपाक के फलस्वरूप चेतना के सम्पर्क में आने पर ये तज्जनित मनोभाव बनते हैं। ये कर्म-पुद्गल प्राणी की क्रिया द्वारा उसकी ओर आकर्षित होते हैं। ये ही बन्धन के निमित्त हैं। बन्धन की दृष्टि से आत्मा की अशुद्ध मनोवृत्तियों (कषाय और मोह) और कर्म-वर्गणा के पुद्गलों में पारस्परिक सम्बन्ध है। वस्तुत: बन्धन की दृष्टि से जड़ कर्म परमाणु और आत्मा में निमित्त
और उपादान का सम्बन्ध है। कर्म-पुद्गल बन्धन के निमित्त कारण हैं और आत्मा उपादान कारण।
जैनाचार्यों ने एकान्त रूप से न तो आत्मा को बन्धन का कारण माना है और न ही कर्मपुद्गलों को, अपितु दोनों के पारस्परिक संयोग से आत्मा बन्धन में आता है यह स्वीकार किया है। कर्मबन्ध : चार प्रकार
बन्धन कर्मसिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण विषय है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने इसका स्वरूप इस प्रकार सूत्रबद्ध किया है
"सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः '६७३ कषाय भाव के कारण जीव का कर्म-पुद्गलों से आक्रान्त हो जाना बन्ध है।
जब कोई प्रवृत्ति होती है, उसी क्षण कर्म का बन्ध हो जाता है। यानी प्रवृत्ति का फल मिल जाता है। प्रवृत्ति का फल है-कर्मों का अर्जन। प्रत्येक क्रिया के साथसाथ फल प्राप्त होता है, क्योंकि प्रत्येक क्रिया परिणाम को साथ लिए चलती है।
कर्म का बन्ध, कर्म परमाणुओं का अर्जन क्रिया का परिणाम है। यह परिणाम तत्काल प्राप्त होता है; ऐसा नहीं होता कि क्रिया अभी हो रही है और कर्म का बंध कभी बाद में होगा। जो अर्जित हो गया, जो संगृहीत हो गया, वह कब तक साथ रहेगा-इसका स्वतन्त्र नियम है। अर्जन का काल क्षण भर का है और उपभोग का काल बहुत लम्बा है। प्राणी दीर्घ काल तक अर्जित कर्मों का उपभोग करता रहता है।
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