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________________ ३७४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ईश्वर एक ही होना चाहिए उचित नहीं। सभी आत्माएँ तात्त्विक दृष्टि से ईश्वर ही हैं, केवल बंधन के कारण वे छोटे-मोटे जीव रूप में देखे जाते हैं- यह सिद्धान्त सभी को अपना ईश्वरत्व प्रकट करने के लिए पूर्ण बल देता है।६७ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त : विकसित स्वरूप जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त का व्यवस्थित विवेचन प्राप्त होता है। कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद तो जैन दर्शन के प्रासंगिक एवं गौण विवेच्य विषय है। किन्तु पूर्वकृत कर्मवाद और पुरुषार्थवाद जैन दर्शन के प्रमुख विवेच्य विषय हैं। "कर्म सिद्धान्त" जैन दर्शन का केन्द्रिय सिद्धान्त है। कर्म-सिद्धान्त के विभिन्न आयाम जैन दर्शन में समाहित हैं। कर्म सिद्धान्त में मात्र कर्म की ही व्याख्या नहीं है प्रत्युत आत्मकर्तृत्व- भोक्तृत्ववाद, पुनर्जन्मवाद आदि अन्य पक्ष भी सम्मिलित हैं। अतः आगमकार कहते हैं- "से आयावादी, लोसावादी, कम्मावादी, किरियावादी'१६८ अर्थात् आत्मा को जानने वाला आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। प्रत्येक आत्मा का पृथक् अस्तित्व और पृथक् कर्म-संयोजन है। इसलिए सभी जीव अपने-अपने कमों के कर्ता एवं भोक्ता है, अत: कहा है- "अप्पा कत्ता विकत्ता य, दहाण य सुहाण य।।१६९ जीव स्वकर्मों से या पुण्य-पाप की क्रियाओं से अष्टविध कर्मों से बन्धता है तथा संवर और निर्जरा से सभी कर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त करता है। बन्धन और मुक्ति की यह प्रक्रिया जीव के एक जन्म में पूर्ण न होकर कई जन्मों में पूर्ण होती है। इसलिए पुनर्जन्म की मान्यता भी कर्म-सिद्धान्त का अंग है। 'कर्म सिद्धान्त' के आधारभूत आगम वाक्य इस प्रकार हैं- "जं जारिसं पुबमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए (सूत्रकृतांग), "जहा कडं कम्मा तहासि भारे" (सूत्रकृतांग) "सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भंवति, दुचिण्ण कम्मा दुचिण्णफला भवंति" (औपणातिक सूत्र) अर्थात् जैसा कर्म किया जाता है उसी के अनुरूप फल मिलता है। आगमों में कर्मसिद्धान्त संक्षेप में प्रस्तुत हुआ, अतः जैनाचार्यों ने कर्मसिद्धान्त को शुभाशुभ कर्म के विपाक की व्यवस्था के लिए इसका विस्तार आवश्यक समझा। ईश्वरवाद, कूटस्थ आत्मवाद, क्षणिकवाद आदि को जैन दार्शनिक स्वीकार नहीं करते, इसलिए उन्होंने कर्म-सिद्धान्त को व्यापक धरातल पर स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों की वृहत्स्तर पर रचनाएँ की। इस सम्बन्ध में पण्डित सुखलालजी कहते हैं कि "यद्यपि वैदिक साहित्य तथा बौद्ध साहित्य में कर्म सम्बन्धी विचार है पर वह इतना अल्प है कि उसका कोई खास ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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