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पूर्वकृत कर्मवाद ३७३ जैन मान्यतानुसार यद्यपि जड़-कर्म चेतन-शक्ति के अभाव में स्वत: फल नहीं दे सकते, लेकिन इसके साथ ही जैनी यह भी स्वीकार करते हैं कि कर्मों को अपना फल प्रदान करने के लिए कर्ता से भिन्न अन्य चेतन सत्ता की अथवा ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। कमों के कर्ता चेतन आत्मा के द्वारा स्वयं ही वासना एवं कषायों की तीव्रता के आधार पर कर्म-विपाक का प्रकार, कालावधि, मात्रा और तीव्रता का निश्चय हो जाता है। यह आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता है और स्वयं ही उनका फल प्रदाता बन जाता है। प्रत्येक जीवात्मा अपने शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से परमात्मा ही है, ऐसा स्वीकार कर लें तो फिर चाहे ईश्वर को कर्म-नियम का नियामक और फल प्रदाता कहें या जीवात्मा को स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता और फल प्रदाता माने, स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। आचार्य हरिभद्र इसी समन्वयात्मक भूमिका को स्पर्श करते हुए कहते हैं
परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मैव वेश्वरः।
स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः।।१६६
केवलज्ञानादि के अतिशयों की सम्पन्नता ही जीव का परमैश्वर्य से सम्पन्न होना है और इस परमैश्वर्य के कारण जीव को ही ईश्वर माना जाता है। इस प्रकार जीवमात्र तात्त्विक दृष्टि से परमात्मा ही है और वही स्वयं अपने अच्छे-बुरे कर्मों का कर्ता और फलप्रदाता भी है। इस तात्त्विक दृष्टि से कर्म नियन्ता के रूप में ईश्वरवाद भी निर्दोष और व्यवस्थित सिद्ध हो जाता है। कर्मवादियों पर ईश्वरवादियों का आक्षेप और उसका समाधान
आक्षेप- ईश्वर एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए कि जो सदा से मुक्त हो, और मुक्त जीवों की अपेक्षा भी जिसमें कुछ विशेषता हो। इसलिए कर्मवाद का यह मानना ठीक नहीं कि कर्म से छूट जाने पर सभी जीव मुक्त अर्थात् ईश्वर हो जाते हैं।
समाधान- ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन; फिर उनमें अन्तर ही क्या है? अन्तर इतना हो सकता है कि जीव की सभी शक्तियाँ आवरणों में घिरी हुई हैं
और ईश्वर की नहीं। पर जिस समय जीव अपने आवरणों को हटा देता है, उस समय तो उसकी सभी शक्तियाँ पूर्ण रूप में प्रकाशित हो जाती हैं। फिर जीव और ईश्वर में विषमता किस बात की? विषमता का कारण जो औपाधिक कर्म है, उसके हट जाने पर भी यदि विषमता बनी रहे तो फिर मुक्ति ही क्या है? विषमता का राज्य संसार तक ही परिमित है आगे नहीं। इसलिए कर्मवाद के अनुसार यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर ही हैं; केवल विश्वास के बल पर यह कहना कि
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