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३७२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
जीव चैतन्य स्वरूप है। यह अपने ज्ञान, दर्शन आदि गुणों से भिन्न है तथा अभिन्न भी है। कर्मों के अनुसार वह मनुष्य, पशु आदि की पर्यायें धारण करता है। अपने अच्छे और बुरे विचारों से शुभ और अशुभ कर्मों को बाँधता है तथा उनके सुख-दुःख रूप फलों को भोगता है।
जैनदर्शन न केवल कर्मफल-नियंता ईश्वर का विरोध करता है, बल्कि इसके संबंध में पुष्ट एवं प्रामाणिक तर्क भी प्रस्तुत करता है१. यदि व्यक्ति ईश्वर प्रेरित कर्मफल को प्राप्त होता है तो संसार में घटित होने
वाले सम्पूर्ण अशुभ कर्मों का दोषी कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता, तब उसका दोषी भी ईश्वर होना चाहिए क्योंकि उक्त समस्त व्यापार उसकी
प्रेरणा से होता है।१६२ २. साधारण बुद्धि रखने वाला शासक भी असत् कर्म होने के पूर्व उसे रोकने
की व्यवस्था करता है तो ईश्वर तो मनुष्य की तुलना में सर्वज्ञ है वह संसारी जीवों को पाप कर्म करने से पहले ही उन्हें क्यों नहीं रोक देता? पहले तो उन्हें खुलकर पाप कर्म करने की छूट देना और बाद में उस पाप कर्म का
दुःखद फल देना उसकी कौन-सी दयालुता एवं न्यायशीलता है? १६३ ३. यदि कर्म-नियम के बिना ईश्वर मात्र अपनी स्वच्छन्द इच्छा से किसी को
मूर्ख और किसी को विद्वान, किसी को राजा और किसी को रंक, किसी को सम्पन्न और किसी को विपन्न बनाए तो उसे न्यायी नहीं कहा जा सकता। लेकिन ईश्वर कभी भी अन्यायी नहीं हो सकता। यही कारण है कि जो दर्शन ईश्वर को फल प्रदाता मानते हैं वे भी यह स्वीकार करते हैं कि ईश्वर जीवों के कर्मानुसार ही उनके सुख-दुःख की व्यवस्था करता है। जैसे व्यक्ति के भले-बुरे कर्म होते हैं उनके अनुसार ही ईश्वर उन्हें प्रतिफल देता है। ईश्वरीय व्यवस्था पूरी तरह कर्मनियम से नियन्त्रित है। ईश्वर अपनी इच्छा से उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता, तो यह सर्वशक्तिसम्पन्न ईश्वर
का उपहास है।१६४ ४. यदि कारुणिक ईश्वर का कार्य कर्म-नियम से अनुशासित है तो फिर न तो
ऐसे ईश्वर का कोई महत्त्व रहता है और न उसकी करुणा का कोई अर्थ। एक ओर ईश्वरीय व्यवस्था को कर्मनियम के अधीन मानना और दूसरी
ओर कर्मव्यवस्था के लिए ईश्वर की आवश्यकता बताना-इससे इतरेतराश्रय दोष का प्रसंग उत्पन्न होता है।१६५
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