________________
पूर्वकृत कर्मवाद
३७१
उसके विपाक की व्यवस्था में प्रकृति ही कारण हुई । १५६ इस प्रकार कर्म - फल की व्यवस्था में सांख्य ईश्वर या अन्य पुरुष को कारण न मानते हुए प्रकृति से ही नियमन स्वीकार करता है।
मीमांसा दर्शन में मानसिक और दैहिक दो प्रकार के कर्म स्वीकार किए गए है। मानसिक कर्म में विचार, कल्पना करना आदि को सम्मिलित किया गया है और दैहिक कर्म में यज्ञ याग आदि को । इन दोनों प्रकार के शुभ कृत्यों से पुण्य - और अशुभ कृत्यों से पाप की उत्पत्ति होती है। पुण्य-पाप के साथ कर्म से एक अपूर्व नामक शक्ति उत्पन्न होती है जो आत्मा के साथ रहती है। १५७ यह अपूर्व कर्म - फल की विधायक है क्योंकि 'फलश्रुतेस्तु कर्म स्यात् फलस्य कर्मयोगित्वात् १५८ अर्थात् कर्मों के फल सुने जाते हैं और फल से कर्म का निश्चित संबंध है। इस प्रकार क्रिया और फल के बीच अपूर्व ईश्वर के समान मध्यस्थ की तरह कार्य करता है। जैनमत में कर्म, कर्मफल और ईश्वर विषयक विचार
जैनदर्शन कर्म को पौगलिक मानता है। जो पुद्गल - परमाणु कर्मरूप में परिणत होते हैं उन्हें कर्म वर्गणा कहते हैं और जो शरीर रूप में परिणत होते हैं उन्हें नोकर्म वर्गणा कहते हैं। लोक इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से परिपूर्ण है।
जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है । मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म का संबंध हो । जीव के साथ कर्म तभी सम्बद्ध होता है, जब मन, वचन और काय की प्रवृत्ति हो। इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादिकाल से चल रही है। कर्म और प्रवृत्ति के कार्य और कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य कर्म कहा है और राग-द्वेषादि रूप प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहा है। इस तरह कर्म के मुख्य दो भेद हैं- द्रव्य कर्म और भाव कर्म ।
कर्मबंध के चार भेद हैं- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । १५९ इनमें प्रकृति और प्रदेश का बंध योग से होता है एवं स्थिति और अनुभाग का बंध कषाय से होता है । सार रूप में कहा जाय तो कषाय ही कर्मबंध का मुख्य हेतु है । १६० कर्मफल के संबंध में षड्दर्शनसमुच्चयकार कहते हैं
तत्र ज्ञानादिधर्मेभ्यो भिन्नाभिन्नो विवृत्तिमान्।
१६१
शुभाशुभकर्मकर्त्ता भोक्ता कर्मफलस्य च । ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org