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३७० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ४. कर्म का कर्ता जो चैतन्य है, वह भी फलप्रदाता नहीं माना जा सकता,
क्योंकि कर्ता कभी भी स्वेच्छा से अशुभ कर्मों का फल प्राप्त करना नहीं
चाहता। अत: फलप्रदाता ईश्वर को मानना आवश्यक है।१५१ वेदान्त में ईश्वर द्वारा कर्मफल
वेदान्त दर्शन का भी मन्तव्य है कि फलप्राप्ति कर्म से नहीं, अपितु ईश्वर अर्थात् ब्रह्म से होती है। 'फलमत उपपत्ते', 'श्रुतत्वाच्च', 'धर्म जैमिनिरत एव', 'पूर्व तु बादरायणो हेतुव्यपदेशात् ५२ आदि सूत्र इस मन्तव्य का प्रतिपादन करते हैं।
सब जीव परमात्मा के आश्रय में ही अपने कर्म-फल रूप भोग को प्राप्त करते हैं, क्योंकि कर्मों का ज्ञाता एवं सर्वशक्तिमान् होने से ब्रह्म ही यह सामर्थ्य रखता है। जड़ प्रकृति अथवा जीवात्मा स्वयं इसमें समर्थ नहीं है। इससे कर्म-भोग की व्यवस्था करने वाला ब्रह्म ही सिद्ध होता है। यह बात श्रुतियों में भी बार-बार कही गई है कि ब्रह्म ही जीवों के कर्म-फल का द्रष्टा है। तैत्तिरीय उपनिषद् में भी ब्रह्म को ही 'महान्, अज-आत्मा कर्म फल देने वाला' कहा है। अन्य श्रुतियाँ भी इसी प्रकार कहती हैं, इससे कर्मफल का देने वाला ब्रह्म ही सिद्ध होता है।
जिस कर्म से फल की उत्पत्ति होती है, वह कर्म ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, 'धर्म' कर्म का पर्याय है। इस प्रकार आचार्य जैमिनि कर्म को ही फल देने वाला स्वीकार करते हैं, किन्तु आचार्य बादरायण इनके मत से सहमत नहीं हैं। बादरायण कर्म को निमित्त मात्र ही मानते हैं क्योंकि जड़ और अनित्य कर्म स्वयं फल की व्यवस्था करने में समर्थ नहीं है। इस प्रकार ब्रह्म ही कर्म-फल प्रदाता सिद्ध होता है। १५३ सांख्यादि अनीश्वरवादी दर्शनों में कर्मफल
__ सांख्य, बौद्ध और मीमांसा दर्शनों में किसी वैयक्तिक ईश्वर का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया गया है। योग दर्शन में ईश्वर का अस्तित्व तो मान्य है, लेकिन वह केवल उपासना का विषय एवं श्रद्धा का केन्द्र है। वह ईश्वर कर्म-नियम का व्यवस्थापक या शुभाशुभ कर्मों का फलप्रदाता नहीं है। ईश्वर के बगैर कर्मफल की व्यवस्था उपर्युक्त दर्शनों में भिन्न प्रकार से स्थापित की गई है।
सांख्यदर्शन में अविवेक या अज्ञान ही कर्मबन्ध का अथवा संसार में भ्रमण करने का मूल कारण है। इस कारण से जीव को सुख-दुःख होता है तथा ज्ञान से मोक्ष रूप फल प्राप्त होता है।५४ ये ज्ञान और अज्ञान बुद्धि के परिणाम या कार्य हैं।१५५ चंकि बुद्धि के नाना रूप कार्य के प्रति अव्यक्त प्रकृति कारण है, अत: ज्ञान-अज्ञान और
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