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________________ पूर्वकृत कर्मवाद ३६९ स्वीकार ही नहीं करते। कुछ कर्मवाद को मानते हैं पर ईश्वरवाद के सहचारी के रूप में उसे स्वीकार करते हैं। ____ भारत के विभिन्न दर्शनों में 'कर्म' के लिए माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। वेदान्त दर्शन में माया, अविद्या और प्रकृति शब्दों का प्रयोग हुआ है। मीमांसा दर्शन में अपूर्व शब्द प्रयुक्त हुआ है। बौद्धदर्शन में वासना और अविज्ञप्ति शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। सांख्यदर्शन में 'आशय' शब्द विशेष रूप से मिलता है। न्यायवैशेषिक दर्शन में अदृष्ट, संस्कार और धर्माधर्म शब्द प्रचलित हैं। दैव, भाग्य, पुण्यपाप आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका प्रयोग सामान्य रूप से सभी दर्शनों में हुआ है। भारतीय दर्शनों में एक चार्वाक दर्शन ही ऐसा दर्शन है जिसका कर्मवाद में विश्वास नहीं है क्योंकि वह आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं मानता है। किन्तु शेष सभी भारतीय दर्शन किसी न किसी रूप में कर्म की सत्ता मानते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन में कर्मफलदाता : ईश्वर न्याय, वैशेषिक और वेदान्त दर्शन कर्मों में स्वतः फल देने की क्षमता का अभाव मानकर ईश्वर को फल-प्रदाता स्वीकार करते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर को कर्म-नियम का व्यवस्थापक एवं कर्मफल का प्रदाता स्वीकार किया गया है। उपर्युक्त दर्शनों के अनुसार राग, द्वेष और मोह रूप दोषों से प्रेरणा प्राप्त कर जीवों में मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ होती है और उससे धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है। ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं। ये संस्कार ही कर्म हैं। इन कर्मों का नियन्ता ईश्वर है, इस संबंध में कुछ तर्क निम्न हैं१. 'ईश्वरः कारणम्-पुरुषकर्माऽऽफल्यदर्शनात् १४८ प्रयत्न करता हुआ जीव हमेशा ही कर्म के फल को प्राप्त नहीं करता है, कभी-कभी उसका कर्म विफल भी हो जाता है। क्यों विफल होता है? ऐसा कोई द्रष्ट कारण नहीं है इसलिए फलोत्पत्ति के अनुकूल ईश्वरेच्छा के न होने से कर्मों की विफलता होती है। इस प्रकार कार्य मात्र के प्रति ईश्वर की कारणता है। २. तत्कारितत्वादहेतुः- ईश्वर पुरुषकार को अनुगृहीत करता है अर्थात् फल प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील जो पुरुष है ईश्वर उसके फल का सम्पादन करता है। जब ईश्वर फल का सम्पादन नहीं करता है तो उस पुरुष का कर्म निष्फल हो जाता है। ३. जड़कर्म अचेतन होने के कारण स्वत: फल प्रदान नहीं कर सकते, क्योंकि __फल प्रदान की क्रिया चेतन की प्रेरणा के बिना नहीं हो सकती।५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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