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________________ ३६८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण क्रियमाण कर्म- जो कर्म वर्तमान में पुरुषार्थ के रूप में किया जा रहा है, उसे क्रियमाण कर्म कहते हैं। क्रियमाण कर्म के आधार पर ही संचित कर्म का अर्जन होता है तथा इसका फल भविष्य में प्राप्त होता है। यह संस्कार का भण्डार है जो भविष्य के लिए सुरक्षित है। क्रियमाण कर्म भविष्य में फल प्रदान करते समय प्रारब्ध बन जाते हैं और प्रारब्ध के अनुसार ही क्रियमाण कर्म सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार क्रियमाण, प्रारब्ध और संचित कर्म के मध्य एक वृत्त का निर्माण होता है ये तीनों कर्म भूत, वर्तमान और भविष्य की व्याख्या करते हैं। भूतकालीन कर्म के अनुसार वर्तमान और वर्तमानकालीन कर्मानुसार भविष्य का जीवन प्राप्त होता है। वर्तमान भूत से जन्य है और भविष्य का जनक है। इस प्रकार कर्म का शाश्वत या निरन्तर चक्र चलता रहता है। जैन दर्शन में संचित कर्म को सत्ता में स्थित कर्म कहा गया है। सत्ता में स्थित कर्म जैसा होता है, उसी के अनुरूप कर्म उदय में आते हैं अर्थात् कर्म के फल की प्राप्ति होती है। अत: कर्म-बंध व उदय से मिलने वाले फल को ही भाग्य कहा गया है। वैदिक परम्परा के प्रारब्ध कर्म को उदय तथा क्रियमाण कर्म को बंध का कारण कहा जा सकता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि भाग्य के अनुरूप ही फल की प्राप्ति होती है। उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना नहीं है। किन्तु जैनदर्शन की मान्यता है कि तप एवं शुभभाव रूप पुरुषार्थ के द्वारा पूर्वबद्ध अर्थात् सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति एवं फलदान शक्ति में परिवर्तन संभव है। यह भाग्य परिवर्तन की प्रक्रिया 'करण' कहलाती है। करण से तात्पर्य है कर्म-बंध से लेकर फल-भोग तक की अवस्थाएँ। इस प्रकार वर्तमान के कर्म ही पुरुष के लिए विधाता है, जिसे 'महापुराण' में निम्न प्रकार से श्लोकाबद्ध किया गया है विधिः स्रष्टा विधाता दैवं कर्म पुराकृतम्। ईश्वरश्चेति पर्यायकर्म वेधसः।।१४५ विधि स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत, ईश्वर ये कर्म रूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्द हैं। अर्थात् कर्म ही वास्तव में ब्रह्म या विधाता हैं। ईश्वर और कर्मफल ___आर्यावर्त की भूमि पर कर्म के विषय में अनेक सिद्धान्त पल्लवित एवं विकसित हुए हैं। कुछ दार्शनिक केवल कर्मवादी हैं तो कुछ दार्शनिक कर्मवाद को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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