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पूर्वकृत कर्मवाद ३६७ योगदर्शन में कर्म
योगदर्शन के अभिमतानुसार 'अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशा: १३९ अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश- इन पाँच क्लेशों से क्लिष्ट वृत्ति उत्पन्न होती है। इस क्लिष्ट वृत्ति से धर्माधर्म रूपी संस्कार पैदा होता है। ये संस्कार और क्लेश ही अविद्या या कर्मबंधन के हेतु हैं।०१ योगदर्शन में इन बद्ध कर्मों का विपाक तीन प्रकार का बताया गया है- जाति, आयु और भोग।१४२ 'जाति' पद मनुष्य, पशु आदि योनियों को सूचित करता है। 'आयु' पद यह संकेत करता है कि एक निश्चित अवधि तक देह तथा प्राण का संयोग रहता है। भोग सुख एवं दुःख रूप अनुभूति को अभिव्यंजित करता है। इस प्रकार योग सम्मत ये तीनों पद एक-दूसरे से इतने आबद्ध है कि एक के अभाव में दूसरे की संभावना नहीं की जा सकती। क्योंकि व्यक्ति अपने द्वारा किये कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का भोग तभी कर सकता है जब उसके पास आयु हो और आयु भी वह तभी धारण कर सकता है जब उसने जन्म लिया हो। इस प्रकार योग दर्शनानुसार कर्म से मिलने वाले जाति, आयु एवं भोग रूप तीनों फल परस्पर सम्बद्ध हैं।
ईश्वर को परिभाषित करते हुए भी योगदर्शन में कर्म और विपाक की चर्चा समुपलब्ध होती है।१४३ यहाँ द्वेषादि क्लेश से उत्पन्न शुभाशुभ कार्यजन्य होने से पुण्यपाप कर्म कहे जाते हैं। ये कर्म चार प्रकार के हैं- कृष्ण, शुक्ल, शुक्लकृष्ण, अशुक्लकृष्ण। दुरात्माओं का कर्म कृष्ण है और तपस्वी, स्वाध्यायी आदि का शुक्ल। चरमदेह कैवल्य प्राप्त संन्यासी अशुक्लकृष्ण हैं और कृष्णशुक्ल बाह्य व्यापार से साध्य हैं।" पुण्य-पाप के फल सुख-दुःख विपाक कहे जाते हैं। कर्म की अवधारणा : कतिपय प्रमुख बिन्दु कर्म और भाग्य
भारतीय चिन्तन में जिसे संचित कर्म कहा गया है, वही भाग्य है। इसे मीमांसा, न्याय आदि दर्शनों ने अदृष्ट भी कहा है। वैदिक परम्परा में कर्म के तीन प्रकार प्रतिपादित हैं- संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण।
संचित कर्म- पूर्वजन्म में कृत कर्म संचित कर्म होते हैं। इस कर्म का उदय समय आने पर होता है।
प्रारब्ध कर्म- जो पूर्वकृत कर्म अपना फल प्रदान करना प्रारम्भ कर देता है, उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं। वर्तमान में जो कुछ हम भोग रहे हैं, वह प्रारब्ध कर्म है।
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