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३६६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण डॉ. भरतसिंह उपाध्याय ३२ लिखते हैं कि भगवान् बुद्ध जीवन की विषमता का मूल कारण कर्म को मानते हैं। कर्म ही प्राणियों को हीन और उत्तम में बाँटता है। जिसका जैसा कर्म है, वैसा उसका फल है। कोई स्त्री या पुरुष, यदि वह प्राणातिपाती है, क्रोधी है, ईर्ष्यालु है, लोभी है, अभिमानी है, पाप कमों में चित्त को लगाने वाला है तो वह उस काया को छोड़ मरने के बाद दुर्गति में उत्पन्न होता है और यदि मनुष्य योनि में आता है तो हीन होता है, दरिद्र और निर्बुद्धि होता है। इसी प्रकार जिसके कर्म शुभ हैं, वह सुगति में जन्म लेता है और यदि मनुष्य योनि में आता है तो उत्तम, स्वस्थ, समृद्ध
और प्रज्ञावान होता है।३२ सुगति या दुर्गति का पाना इस प्रकार कर्म के शुभ या अशुभ होने पर निर्भर है।३४ सदाचार से सुगति और दुराचार से दुर्गति प्राप्त होती है।३५
कर्म और विपाक के पारस्परिक संबंध और अन्योन्याश्रित भाव से यह संसार चक्र चलता है, यह कर्म के सिद्धान्त की धुरी है। जिसे विसुद्धिमग्ग में निम्न शब्दों में उद्धत किया गया है
कम्मा विपाका वत्तन्ति विपाको कम्म संभवो।
कम्मा पुनन्भवो होति एवं लोको पवत्तती ति।।१३६
कर्म से विपाक प्रवर्तित होते हैं और स्वयं विपाक कर्म-संभव हैं। कर्म से पुनर्जन्म होता है, इस प्रकार यह संसार प्रवर्तित होता है। अत: कहा जा सकता है कि बुद्ध शासन की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा कर्म के सिद्धान्त पर आधारित है। यह कर्म सिद्धान्त सभी बौद्ध दार्शनिकों को मान्य है। वेदान्त दर्शन में कर्म
वेदान्त के अनुसार बन्धन का मूल कारण अविद्या या अज्ञान है। अविद्या आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है, बल्कि जीव की मिथ्या कल्पना का परिणाम है। अविद्या से उत्पन्न कर्मफल को सब जीव परमात्मा के आश्रय से ही भोगते हैं क्योंकि कर्मों का ज्ञाता एवं सर्वशक्तिमान् होने से ब्रह्म ही यह सामर्थ्य रखता है। जड़ प्रकृति अथवा जीवात्मा स्वयं इसमें समर्थ नहीं है। इसमें कर्म भोग की व्यवस्था करने वाला ब्रह्म ही सिद्ध होता है। अत: वेदान्त दर्शन में कहा है
___'फलमत उपपत्तेः १३७ अर्थात इस परमात्मा से ही कर्मफल मानना उपयुक्त है। यह बात श्रुतियों में भी बार-बार कही गई है कि ब्रह्म ही जीवों के कर्म-फल का द्रष्टा है।१३८ तैत्तिरीय उपनिषद् में भी ब्रह्म को ही 'महान् अज आत्मा कर्म-फल देने वाला' कहा है। अन्य श्रुतियाँ भी इसी प्रकार कहती हैं, इससे कर्म-फल का देने वाला ब्रह्म ही सिद्ध होता है।
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