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________________ पूर्वकृत कर्मवाद ३६५ बौद्ध दर्शन में कर्म बौद्ध धर्म में कर्म को चैतसिक कहा गया है और वह चित्त के आश्रित रहता है। यह कर्म तीन प्रकार का है- १. मानसिक कर्म २. वाचिक कर्म ३. कायिक कर्म।२० इन्हें त्रिदण्ड भी कहा जाता है। इनमें से मनोदण्ड हीनतम और सावद्यतम कर्म माना गया है। मानसिक कर्म 'वासना' कहलाता है और वाचिक तथा कायिक कर्म 'अविज्ञप्ति' माना जाता है। कहीं पर मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म को विज्ञप्ति रूप भी कहा गया है। बौद्ध धर्म में मान्य कर्म का वासना और अविज्ञप्ति रूप जैनधर्म का द्रव्यकर्म और संस्कार तथा विज्ञप्ति रूप कर्म जैनधर्म का भावकर्म माना जा सकता है।१२८ बौद्ध दर्शन में द्वादश अंग कहे गए हैं, उसके अन्तर्गत संस्कार का भी उल्लेख है। यहाँ संस्कार से अभिप्राय 'कर्म से है। यह कर्मावस्था पूर्वजन्म की है। अविद्यावश सत्त्व जो भी भला-बुरा कर्म करता है, वही संस्कार कहलाता है। आचार्य बुद्धघोष संस्कृत प्रत्युत्पन्न धर्मों का अभिसंस्कार करने वाली लौकिक कुशल और अकुशल चेतना को ही 'संस्कार' कहते हैं। यह संस्कार तीन प्रकार का होता है- १. पुण्याभिसंस्कार २. अपुण्याभिसंस्कार ३. आनेंजाभिसंस्कार।१२९ दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद के आठों अंगों को ही बौद्ध दर्शन में 'आर्य अष्टांगिक मार्ग' भी कहा जाता है। चतुर्थ अंग 'सम्यक कर्मान्त' में सम्यक कर्मान्त का अर्थ ठीक कर्म अथवा यथार्थ कार्य है। सत्त्वों का कर्म प्रबल होता है, कर्मों पर ही सत्त्व निर्भर है। उसके जैसे कर्म होंगे, वैसी ही उसकी गति होगी। यदि बुरे कर्म किए हैं तो नरकगामी होगा और यदि सत्कर्म किए हैं तो स्वर्ग या निर्वाण का प्राप्तकर्ता होगा। हिंसा, चोरी और काम मिथ्याचार से विरत रहना ही सम्यक कर्मान्त है। सम्यक् कर्मान्त के कारण सत्त्व पाप से ऊपर उठता है और सदाचारी बनता है। इस प्रकार जो जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल भोगता है।९३० माणवक द्वारा प्राणियों की हीनता और उत्तमता के संबंध में प्रश्न किए जाने पर भगवान बुद्ध कहते हैं- "कम्मस्सका माणव सत्ता कम्मदायादा कम्मयोनी कम्मबन्धू कम्मपटिसरणा, कम्मं सत्ते विभजति यदिदं हीनपणीतताया, ति।१३१ अर्थात् माणवक! प्राणी कर्मस्वक (कर्म ही है अपना जिनका) हैं, कर्मदायाद, कर्मयोनि, कर्म-बन्धु और कर्मप्रतिशरण है। कर्म ही प्राणियों को इस हीनता और उत्तमता में विभक्त करता है। इस प्रसंग को अधिक स्पष्ट करते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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