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३६४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण भविष्य में प्राप्त होता है। इस प्रकार कर्म के फल की निष्पत्ति तत्काल न होकर बाद में होती है तो क्रिया और फल के मध्य काल की असंगति आ जाती है। जिसे दूर करने के लिए मीमांसक 'अपूर्व के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं। यह अपूर्व कर्म का विधायक है क्योंकि 'फलश्रुतेस्तु कर्म स्यात्, फलस्य कर्मयोगित्वात् १२२ अर्थात् कर्मों के फल सुने जाते है और फल से कर्म का निश्चित संबंध है। इसका आशय यह है कि यज्ञ से 'अपूर्व (पुण्य)' उत्पन्न होता है और अपूर्व से उत्पन्न होता है स्वर्ग (फल)। इस प्रकार क्रिया और फल के बीच अपूर्व माध्यम का काम करता है।
___ जीव का अपने कृत कर्मों के साथ जो संबंध है वह मिट नहीं सकता और वह जो धन भोग करने के लिए पाता है तो वह उसके पुराने या नये कर्मों का फल होता है। जो धन कमों के फलस्वरूप प्राप्त नहीं होता है तो वह अपने आप ही नष्ट हो जाता है अथवा रोग, दुर्घटना आदि कोई ऐसी बाधा उपस्थित हो जाती है जिससे वह उसका भोग नहीं कर सकता। प्रारब्ध कर्म मनुष्य को केवल भोग देने के लिए होते हैं। वर्तमान समय के क्रियमाण कर्मों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनको मनुष्य यथा रूप भला या बुरा करके आगे के लिए वैसा ही प्रारब्ध बना सकता है। २०
कतिपय मीमांसक विद्वानों ने कर्म-विभाजन तीन श्रेणियों में किया हैसहज कर्म, जैव कर्म, ऐश कर्म। प्रकृति की आरम्भिक अवस्था में ब्रह्मांड और पंचभूतों की उत्पत्ति तथा उभिज्ज के रूप में जीव-सृष्टि का आरम्भ होना आदि सहज कर्म माने जाते हैं। मीमांसा इनको प्रकृति के कर्म मानता है। इसके पश्चात् जब उद्भिज्ज से चलने-फिरने वाले प्राणी बनकर अन्त में मनुष्य का आविर्भाव हो जाता है तब जैव कर्म आरम्भ होता है। क्योंकि मनुष्य को बुद्धि, विवेक मिल जाने के कारण वह पाप-पुण्य का निर्णय कर सकता है। इसी जैव कर्म के फलस्वरूप मनुष्य प्रेतयोनि, स्वर्ग-नरक, मनुष्य लोक आदि में भ्रमण करता हुआ तरह-तरह की योनियों का अनुभव करता रहता है। इसी अवस्था में वह वेद, पुराण, धर्म-ग्रन्थ आदि की सहायता से आत्मिक उन्नति के मार्ग में अग्रसर होता जाता है। ऐश कर्म का संबंध मनुष्य लोक से उच्च स्थिति वाले देवलोक से है, पर मनुष्य लोक से भी उसका परोक्ष संबंध रहता है। इसी कर्म के प्रभाव से मनुष्य देव पदवी को प्राप्त करता है और निरन्तर परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर होता है। २५
सकाम कमों के अनुष्ठान से तो पुण्य-पाप होते हैं, जिससे जीवात्मा सदैव बन्धनों में ही पड़ा रहता है, पर निष्काम धर्माचरण से तथा आत्मज्ञान के प्रभाव से पूर्व कर्मों के संचित संस्कार नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पाकर दुःखों से निवृत्ति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।१२६
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