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________________ पूर्वकृत कर्मवाद ३६३ अथवा संसार में भ्रमण करने का मूल कारण है।१६ इसके साथ ही ईश्वरकृष्ण यह भी कहते हैं कि 'धर्मेण गमनमूर्ध्व, गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण ११७ अर्थात् धर्म से ऊपर के लोकों में और अधर्म से अधोलोक में गमन होता है। इस कारिकांश पर रमाशंकर त्रिपाठी तत्त्व प्रदीपिका व्याख्या में लिखते हैं- 'धर्मेण सुकृतेन यागादिना इत्यर्थः ऊर्ध्व युप्रभृतिषु लोकेषु गमनं भवति। अधर्मेण दुष्कृतेन हिंसादिना अथस्तात् सुतलादिषु नरकादिषु वा गमनं भवति। धर्माचरणेन मानवाः सूक्ष्मशरीरेण उत्तमेषु लोकेषु व्रजन्ति, ततः पुण्ये क्षीणे उत्तमेष्वेव कुलेषु उत्पद्यन्ते। अधर्माचरणेन निन्दितेषु भुवोऽधस्ताद्वर्तमानेषु सुतलादिषु नरकेषु वा गच्छन्ति; पुनः ततः अधमेषु कुलेषु वा योनिषु जायन्ते इति भावार्थः। ११८ अर्थात् धर्म या यागादि रूप सुकृत से ऊर्ध्व लोकों में गमन होता है। धर्माचरण से मनुष्य सूक्ष्म शरीर के द्वारा उत्तम लोकों में जाते हैं, वहाँ से पुण्य क्षीण होने पर उत्तम कुलों में उत्पन्न होते हैं। अधर्म के आचरण से पृथ्वी के नीचे सुतल आदि निन्दित नरकों में जाते हैं। फिर वहाँ से अधम कुलों में अथवा योनियों में उत्पन्न होते हैं। बंधन एवं मुक्ति की प्रक्रिया तथा कर्मों का स्वरूप सांख्यदर्शन में जैनदर्शन से कुछ भिन्न रूप में प्रतिपादित हुआ है। सांख्य में जीव अकर्ता होते हुए भी बंधन एवं मुक्ति की प्रक्रिया से गुजरता है। सांख्य भी पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। जैनदर्शन के कार्मण शरीर को सांख्यदार्शनिक लिंगशरीर या सूक्ष्म शरीर कहते हैं। १९ सत्त्व, रजस्, तमस् इन तीनों गुणों से युक्त प्रकृति को सांख्यदर्शन की मानता है तथा इसे ही पुरुष को मुक्ति दिलाने में सहायक भी मानता है। प्रकृति एवं पुरुष का संयोग ही कर्म (संस्कार) को उत्पन्न करता है, जिसके फलस्वरूप भोग प्राप्त होता है।१२० यह भोग चेतन पुरुष लिंग शरीर के विनाश होने तक, ऊपर, नीचे तथा मध्य के लोकों में जरा-मरण से उत्पन्न दुःख के रूप में प्राप्त करता है।१२१ मीमांसा दर्शन में कर्म ____ मीमांसा दर्शन में कर्म को वैदिक यज्ञ-संबंधी कर्मकाण्ड के अनुष्ठान के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। कर्म में दैहिक एवं मानसिक दोनों कार्य स्वीकार किए गए हैं। मानसिक कर्म में विचार करना, कल्पना करना, ज्ञान प्राप्त करना आदि को सम्मिलित किया गया है और दैहिक कर्म में यज्ञयाग आदि को। ___ इस दर्शन के 'अपूर्व सिद्धान्त' को 'कर्म सिद्धान्त' का पर्याय कहा जा सकता है। अपूर्व का शाब्दिक अर्थ है- 'पूर्व' अर्थात् कृत कर्मों से नवीन उत्पन्न होने वाला पाप तथा पुण्य रूप फल।१२२ यजमान यज्ञ तो आज करता है किन्तु उसका फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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