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________________ ३६२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण रागद्वेषादि रूप कारण के नाश से पुण्य-पाप रूप दस प्रकार की कायिक, वाचिक, मानसिक प्रवृत्तियों का नाश हो जाता है। प्रवृत्तिरूप कारण के नाश से जन्म का भी नाश हो जाता है ( शरीरान्तर संबंध नहीं होता) जन्मरूप कारण के अभाव से दुःखात्यन्तनिवृत्ति रूप मोक्ष की उपलब्धि होती है । ११३ प्रयत्न करता हुआ जीव हमेशा ही कर्म के फल को प्राप्त नहीं करता है, कभी-कभी उसका कर्म विफल भी हो जाता है। इसका कोई दृष्ट कारण नहीं है, अतः सूत्रकार कहते हैं- 'ईश्वरः कारणम् - पुरुषकर्माऽऽफल्यदर्शनात् ११४ यानी ईश्वर कारण है, क्योंकि कर्मों की विफलता फलोत्पत्ति के अनुकूल ईश्वरेच्छा न होने से होती है। दूसरी बात यह है कि अदृष्ट अचेतन है, अतः इसको संचालित करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता होती है। इसी अर्थ में ईश्वर को कर्मफलदाता माना जाता है। वैशेषिकसूत्र में कर्म वैशेषिक सूत्र में कर्म को द्रव्य माना गया है। यह द्रव्य अन्य द्रव्य में समवाय संबंध से रहने वाला पदार्थ है । इसका लक्षण है - "एक-दव्यमगुणम् संयोग-विभागेष्वकारणमनपेक्ष इति कर्म लक्षणम्' कर्म द्रव्य एवं निर्गुण है तथा संयोग और विभाग की उत्पत्ति में स्वोत्तरभावी पदार्थ की अपेक्षा के बिना ही कारण होता है । इस प्रकार महर्षि कणाद ने कर्म के तीन लक्षण बताए हैं- कर्म एक ही द्रव्य में रहता है, स्वयं अगुणवान है और संयोगवियोग का कारण होता है। यह कर्म पाँच प्रकार का होता है- उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन। कर्म का यह स्वरूप पुरुष द्वारा कृत पूर्वकर्म का बोधक नहीं है। यह तो एक भिन्न पदार्थ है जो द्रव्य एवं गुण में रहता है। पूर्वकृत कर्म या अदृष्ट का स्वरूप तो वैशेषिक दर्शन में भी वही स्वीकार्य है जो न्यायदर्शन में प्रतिपादित है। सांख्यदर्शन में कर्म 'कर्म' शब्द का प्रयोग यद्यपि सांख्यदर्शन में कहीं नहीं हुआ है किन्तु वहाँ जैनदर्शन में प्रयुक्त 'कर्म' शब्द की अर्थाभिव्यक्ति मिलती है। जैनदर्शन में दुःखों को कर्मों का फल माना गया है, वैसे ही सांख्यदर्शन में अविवेक अथवा अनादि अविद्या के कारण सुख-दुःख का होना स्वीकार किया गया है। यह अविवेक ही कर्मबंध का Jain Education International .१५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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