SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वकृत कर्मवाद ३६१ न्यायदर्शन में कर्म न्यायदर्शन में कर्मसिद्धान्त 'अदृष्ट' के रूप में विवेचित है। अदृष्ट का शाब्दिक अर्थ है- अदृश्य शक्ति। कर्म अनित्य रूप है।०८ विश्व में रहने वाले लोगों के बीच अत्यधिक विषमता पाई जाती है। कुछ लोगों के पास अत्यधिक सम्पत्ति पाई जाती है तो कुछ लोग निर्धन होते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो बिना परिश्रम किए ही सुख प्राप्त करते हैं; लेकिन कुछ लोग कठिन परिश्रम करने पर भी दुःख झेलते हैं। कुछ लोग ज्ञानी हैं तो कुछ लोग अज्ञानी। अतः यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न है कि इस विषमता का क्या कारण है? न्यायदर्शन इस विषमता की व्याख्या कर्म-सिद्धान्त के आधार पर करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के सभी कमों के फल सुरक्षित रहते हैं। शुभ कर्मों से सुख की प्राप्ति होती है तथा अशुभ कर्मों से दु:ख की प्राप्ति होती है। इन भावों को वात्स्यायन न्यायभाष्य में 'सर्वदव्याणां विश्वरूपो व्यूह इन्द्रियवत् कर्मकारितः पुरुषार्थतन्त्रः। कर्म तु धर्माधर्मभूतं चेतनस्योपभोगार्थमिति ०९ शब्दों से प्रकट करते हैं। तात्पर्य है कि सभी द्रव्यों की विविध रूपों में उत्पत्ति इन्द्रियों के समान कर्म (अदृष्ट) के कारण ही हुई है। कर्म तो धर्माधर्मभूत चेतन के सुख और दुःख का साधन है। शरीर की सृष्टि कर्मनिमित्तक है। इस पक्ष को प्रमाणित करते हुए न्यायसूत्रकार लिखते हैं- 'पूर्वकृतफलानुबंधात्तदुत्पत्ति: १० अर्थात् पूर्वकृत कर्म के फल के संबंध से शरीर की उत्पत्ति होती है। अभिप्राय यह है कि पूर्वकृत जो कर्म है उन कर्मों से उत्पन्न जो अदृष्ट है, उस अदृष्ट के संबंध से शरीर का निर्माण होता है। पूर्व शरीर में जो वाणी, बुद्धि, शरीर की आरम्भ रूपा प्रवृत्ति है, वही पूर्वकृत कर्म कही गयी है, उसका फल उससे जन्य धर्म और अधर्म है। उस फल (धर्म और अधर्म) का जो अनुबंध और आत्मसमवेत अदृष्टाख्य धर्म और अधर्म की अवस्थिति है, उससे प्रयुक्त भूतों के द्वारा शरीर की उत्पत्ति होती है, स्वतन्त्र भूतों के द्वारा शरीर की उत्पत्ति नहीं होती है। १९ अपवर्ग की प्राप्ति-प्रक्रिया बताते हुए सूत्रकार कहते हैं'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोष- मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तराऽपाये तदनन्तरापायादपवर्ग: ११२ दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष, मिथ्याज्ञानों में से उत्तर-उत्तर पदार्थों का अपाय (निवृत्ति) होने पर तदनन्तरापाय (उनके पूर्व-पूर्व की निवृत्ति) होने से अपवर्ग (मोक्ष) होता है। भाव यह है कि तत्त्वज्ञान और मिथ्याज्ञान के परस्पर विरुद्ध होने से तत्त्वज्ञान के द्वारा मिथ्याज्ञान रूपी मूलकारण के नष्ट हो जाने से.रागद्वेषादि का नाश हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy