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३६० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
ऐहिकः प्राक्तनं हन्ति प्राक्तनोऽद्यतनं बलात्। सर्वदा पुरुषस्पन्दस्तत्रानुद्वेगवांजयी।। द्वयोरद्यतनस्यैव प्रत्यक्षाद्वलिता भवेत्। दैवं जेतुं यतो यत्नै लो यूनेव शक्यते।। परं पौरुषमाश्रित्य दन्तैर्दन्तान्विचूर्णयन्। शुभेनाशुभमुद्युक्तं प्राक्तनं पौरुषं जयेत्।। प्राक्तनः पुरुषार्थोऽसौ मां नियोजयतीति धीः। बलादधस्पदीकार्या प्रत्यक्षादधिका न सा।। तावत्तावत्प्रयत्नेन यतितव्यं सुपौरुषम्। प्राक्तनं पौरुषं यावदशुभं शाम्यति स्वयम्।।३००
अर्थात् दोनों पुरुषार्थ (पूर्वकृत कर्म जिसका नाम दैव है और वर्तमानकाल का पुरुषार्थ) दो मेंढों के समान एक-दूसरे के साथ लड़ते हैं, जो उनमें अधिक बलवाला होता है वही विजय पाता है। जैसे कल का बिगड़ा हुआ काम आज के प्रयत्न से सुधर जाता है उसी प्रकार वर्तमानकालिक पुरुषार्थ पूर्व के किए हुए पुरुषार्थ को सुधार सकता है; इसलिए मनुष्य को कार्यशील होना चाहिए। अधिक बली होने पर वर्तमानकालिक पुरुषार्थ पूर्वकाल के पुरुषार्थ को और पूर्वकालिक पुरुषार्थ वर्तमानकाल के पुरुषार्थ को दबा देता है; हमेशा ही पुरुष का किया हुआ प्रयत्न विजय पाता है। जो उद्वेग रहित होकर पुरुषार्थ करता है, वही विजय पाता है। यह तो प्रत्यक्ष में ही सिद्ध है कि पूर्वकाल के कर्म की अपेक्षा वर्तमान का किया हुआ कर्म अधिक बलवान है। इसलिए दैव को वर्तमानकालिक पुरुषार्थ इस प्रकार जीत लेता है जैसे कि बच्चे को युवक। इसलिए परम पुरुषार्थ का आश्रय लेकर शुभ कर्म द्वारा पूर्वकाल के अशुभ कर्मों पर विजय प्राप्त करना चाहिए। बलपूर्वक इस विचार को दूर करना चाहिए कि उसे दैव किसी ओर प्रेरित कर रहा है। वर्तमानकालिक पुरुषार्थ से किसी प्रकार भी पूर्वकालिक पुरुषार्थ बलवान नहीं है। मनुष्य को इतना पुरुषार्थ करना चाहिए कि जिससे उसके पूर्वकाल के अशुभ कर्म शान्त हो जाएँ। विभिन्न भारतीय दर्शनों में कर्म
भारतीय दर्शन के लगभग सभी प्रस्थानों में कर्म की चर्चा हुई है। यहाँ न्याय, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसा, बौद्ध एवं वेदान्त दर्शन से कर्म के स्वरूप पर विचार किया जा रहा है। जैनदर्शन में कर्म-स्वरूप पर पृथक् से विवेचन किया जाएगा।
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