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३५८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
हम देवताओं को नमस्कार करते हैं, परन्तु वे भी विधाता के अधीन हैं। विधाता वन्दनीय है, वह भी केवल निश्चित कर्म का ही फल देने वाला है। यदि फल कर्मों के अधीन है तो देवताओं से क्या और विधाता से क्या प्रयोजन, उन कर्मों को ही नमस्कार है जिनके लिए विधाता ही समर्थ नहीं हो पाता।
कर्म का प्रभुत्व मनुष्य एवं देवताओं सभी पर चलता है। कर्म ही प्रधान एवं शक्तिशाली है। इसी तथ्य को कवि प्रकट करता हुआ कहता है कि कर्म की अप्रतिम शक्ति के कारण ही ब्रह्मा को ब्रह्माण्ड रूपी बर्तन में बंद होकर उसी प्रकार सृष्टि का निर्माण करते रहना पड़ता है, जिस प्रकार कोई कुम्हार घट निर्माण के कार्य में लगा रहता है। कर्म के प्रभाव के कारण ही भगवान् विष्णु को दस अवतार धारण करने रूपी अनेक कष्टों को सहन करना पड़ता है।
बलवान कर्म का ही प्रभाव है कि उसने संसार का विनाश करने वाले भगवान शिव को भी हाथ में कपाल लेकर भिक्षा के लिए भ्रमण कराया। इस प्रकार कर्म ने शिव को 'कपाली' बनने को विवश कर दिया। इतना ही नहीं-संसार को आलोकित करने वाले भगवान भास्कर भी कर्म के प्रभाव के कारण ही निरन्तर आकाश मण्डल में भ्रमण करते रहते हैं। अत: कर्म ही सर्वोपरि एवं सर्वातिशायी है। इस महाबली कर्म के प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सूर्य भी नहीं बच सके तो साधारण मानव की क्या शक्ति है। अत: कर्म प्रणम्य है। योगवासिष्ठ में दैव और पुरुषार्थ
योगवासिष्ठ में दैव की चर्चा विस्तार से हुई है। 'पूर्वकृत कर्म ही दैव है' इस संबंध में निम्नांकित श्लोक प्रकाश डालते हैं
पुरुषार्थ फलप्राप्तिर्देशकालवशादिह। प्राप्ता चिरेण शीघ्रं वा याऽसौ दैवमिति स्मृता।।५ सिद्धस्य पौरुषेणेह फलस्य फलशालिना। शुभाशुभार्थ सम्पत्तिर्दैवशब्देन कथ्यते।। ६ भावी त्ववश्यमेवार्थः पुरुषार्थैकसाधनः। यः सोऽस्मिल्लोकसंघाते दैवशब्देन कथ्याते।।७
यदेव तीव्रसंवेगाद् द्वढं कर्म कृतं पुरा। तदेव दैवशब्देन पर्यायेणेह कथ्यते।।
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