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पूर्वकृत कर्मवाद
नीतिशतक में भाग्य एवं कर्म
नीतिशतक में भी पूर्वकृत कर्म का प्रतिपादन विभिन्न श्लोकों में हुआ है। पूर्वकृत कर्मों का संचय ही भाग्य है और यह भाग्य ही होनी-अनहोनी में कारण होता है । पूर्वकृत पुण्य शुभफलों के जनक होते हैं, इसलिए कर्म की महिमा को नीतिकार ने सुन्दर शब्दों में प्रस्तुत किया है
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'भाग्यानि पूर्व - तपसा खलु संचितानि काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः ।
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अर्थात् पूर्व जन्म में किए गए तप द्वारा संचित भाग्य ही निश्चित रूप से उचित समय पर फल देता है, जैसे- वृक्ष। जिस प्रकार वृक्ष समय आने पर स्वतः फल प्रदान करते हैं उसी प्रकार परोपकारादि शुभ कर्मों के फलस्वरूप निर्मित 'संचित भाग्य' भी समय आने पर मानव को शुभ फल देते हैं। इन फलों का कथन निम्नांकित श्लोकों में हुआ है
वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा। सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा, रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ।। भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं, सर्वो जनः स्वजनतामुपयाति तस्य । कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा, यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य । ।
मनुष्यों द्वारा किये गये पूर्व जन्म के पुण्य ही सर्वत्र रक्षा करते हैं। वन में, युद्ध में, शत्रु, जल और अग्नि के बीच में, महासागर में अथवा पर्वत की चोटी पर सोये हुए को, असावधान को अथवा संकट में पड़े हुए को पुण्य ही बचाते हैं।
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जिस मनुष्य का पूर्वजन्म का अत्यधिक पुण्य है, उसके लिए भयानक वन ही प्रधान नगर हो जाता है। सभी लोग उसके आत्मीय बन जाते हैं और यह सम्पूर्ण पृथिवी उत्तम निधियों व रत्नों से परिपूर्ण हो जाती है। अतः पुण्यशाली मनुष्य के लिए किसी भी वस्तु का अभाव नहीं रहता। उसे सर्वत्र अनुकूलता प्राप्त होती है। जहाँ कहीं विषम परिस्थितियाँ भी बनती है वहाँ भी शुभ कर्म उसकी सहायता करते हैं।
कवि कर्म की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहता हैनमस्यामो देवान्नु हतविधेस्तेऽपि वशगा, विधिर्वन्हाः सोऽपि प्रतिनियतकमैकफलदः । फलं कर्मायत्तं यदि किममरैः किंच विधिना, नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति । ।
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