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________________ ३५६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जिस प्रकार छाया और धूप आपस में सदा सम्बद्ध रहते हैं इसी तरह कर्म और कर्ता एक-दूसरे से बंधे रहते हैं। ये पूर्वकृत कर्म सोते हुए मनुष्य के साथ सोते हैं और चलते हुए के साथ चलते हैं। ये हमेशा आत्मा के साथ रहते हैं। जिस प्रकार बछड़ा हजारों गायों में भी अपनी माता को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्वजन्म में किया हुआ कर्म कर्ता के पीछे-पीछे जाता है। ये पूर्वकृत कर्म ही भाग्य बनता है; जो गर्भ में स्थित प्राणी के आयु, काम, धन, विद्या और मृत्यु निश्चित करता है। मनुष्य ने जिस स्थान, जिस समय और जैसी आयु में शुभाशुभ कर्म पूर्वजन्म में किए हैं उन्हीं के अनुरूप वे कर्म उसे भाग्याधीन होकर भोगने पड़ते हैं। २ दैव के प्रतिकूल होने पर महापुरुष भी विवेकहत होकर कुमार्ग में प्रवृत्त हो जाते हैं तथा पूर्व संचित धन भी नष्ट हो जाते हैं। इसके विपरीत दैव अनुकूल होने पर बिना परिश्रम के भी विधि की प्रेरणा से फल मिल जाता है अकृतेऽप्युद्यमे पुंसामन्यजन्मकृतं फलम्। शुभाशुभं समभ्योति विधिना संनियोजितम्।। हितोपदेश में पूर्वजन्मकृत कर्म हितोपदेश में 'पूर्वजन्मकृतं कर्म तद् दैवमिति कथ्यते श्लोकांश द्वारा पूर्वजन्म में कृत कर्म को दैव कहा है। दैव के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा हैयस्माच्चा येन च यथा च यदा च यच्च, यावच्च यत्र च शुभाशुभमात्मकर्म। तस्माच्च तेन च तथा च तदा च तच्च, तावच्च तत्र च विधातृवशादुपैति।। जिस कारण से, जिस करण से, जिस प्रकार से, जिस काल में, जैसा, जितना छोटा-बड़ा, जहाँ-जहाँ जो-जो शुभ या अशुभ कर्म-फल भोगना लिखा होता है, भाग्यवश उस कारण से, उस करण से, उसी प्रकार से, उसी समय में वैसा ही छोटा या बड़ा उसी स्थल में वह शुभाऽशुभ कर्म, फलस्वरूप में परिणत होकर उपस्थित हो जाता है। 'सम्पत्तेश्च विपत्तेश्य दैवमेव हि कारणम्" सम्पत्ति और विपत्ति दोनों का कारण दैव ही है। ऐसा जानकर भी नीतिज्ञ सफलता हेतु इधर-उधर कितना ही प्रयत्न करे तथापि उसे फल उतना ही प्राप्त होगा जो भाग्य में लिखा है। क्योंकि कभी-कभी भली-भाँति सोच कर किए गए कार्य भी भाग्यदोष से नष्ट हो जाते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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