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पूर्वकृत कर्मवाद ३५५ गीता की दृष्टि में मोक्ष निर्वाण है, परमशान्ति का अधिष्ठान है।७३ गीता यह भी स्वीकार करती है कि मोक्ष सुखावस्था है। मुक्तात्मा ब्रह्मभूत होकर अत्यन्त सुख का अनुभव करता है। संस्कृत-साहित्य में पूर्वकृत कर्म का स्वरूप
संस्कृत साहित्य की विभिन्न कृतियों में कर्म एवं पुरुषार्थ की चर्चा है। वहाँ पूर्वकृत कर्म को 'दैव' या 'भाग्य' कहा गया है। यहाँ पर कतिपय कृतियों से पूर्वकृत कर्म अथवा भाग्य से सम्बद्ध वाक्य निदर्शन के रूप में प्रस्तुत हैंशुक्रनीति में दैव
शुक्रनीति में पूर्वकृत कर्म को दैव या भाग्य कहा गया है
दैवे पुरुषकारे च खलु सर्व प्रतिष्ठितम्।
पूर्वजन्मकृतं कर्मेहार्जितं तद् द्विधाकृतम्।।
अर्थात् भाग्य व पुरुषार्थ पर ही सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। इनमें एक कर्म के ही दो भेद किए गए है- पूर्वजन्म में किया हुआ कर्म 'भाग्य' है और इस जन्म में किया हुआ कर्म 'पुरुषार्थ' है। स्वप्नवासवदत्त में भाग्य
स्वप्नवासवदत्त नाटक में भाग्य का प्रतिपादन हुआ है। वहाँ अपमान से व्यथित वासवदत्ता को समझाते हुए यौगन्धरायण कहते हैं- 'कालक्रमेण जगतः परिवर्तमाना चक्रारपंक्तिरिव गच्छति भाग्यापंक्ति: भाग्यवश समय के फेर से बदलने वाली दशाएँ रथ के पहियों के अरों की भाँति ऊपर-नीचे होती रहती हैं। महान् कवि भास की इस अत्यन्त गौरवमयी सूक्ति की छाया मेघदूत में भी दृष्टिगोचर होती है- 'नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण। महान् कवियों की इस प्रकार की उक्तियाँ दैवदलित मानवों को बहुत ही संतोष एवं शांति प्रदान करती हैं। पंचतन्त्र में कर्म
पंचतंत्र में कर्म और कर्ता को छाया और धूप के सदृश बताया गया है
यथा छायातपो नित्यं सुसंबद्धौ परस्परम्। एवं कर्म च कर्ता च संश्लिष्टावितरेतरम्।।
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