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________________ ३०४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण पूर्वकृत कर्म की कारणता तो जीवों में ही संभव है, अजीवों में नहीं। क्योंकि कर्म सिद्धान्त का विवेचन सभी दर्शन जीव की शुभाशुभ प्रवृत्तियों से जोड़ कर करते हैं। नियतिवाद जीव और अजीव दोनों पर लागू होता है। नियतिवाद के द्वारा जीवअजीव से सम्बद्ध प्रत्येक घटना की व्याख्या की जा सकती है। कर्मसिद्धान्त भी नियतिवाद का तब एक अंग बन सकता है। नियतिवाद के अन्तर्गत पुरुषार्थ, काल एवं स्वभाव का भी समावेश संभव है। पूर्वकृत कर्मवाद में भी कर्मों का फल नियत हो जाता है किन्तु पुरुषार्थ के द्वारा जैन दर्शनानुसार तप आदि के द्वारा कर्म की स्थिति का अपकर्षण, उत्कर्षण या संक्रमण करके फलभोग में परिवर्तन किया जा सकता है। पुरुषार्थ और नियतिवाद सामान्यत: नियतिवाद को पुरुषार्थवाद का विरोधी समझा जाता है। एकान्त नियतिवादी नियति से ही सब कार्यों का जन्म मानते हैं। जीव से संबंधित कार्यों को भी वे नियति से उत्पन्न ठहराते हैं तथा पुरुषार्थ की व्यर्थता का प्रतिपादन करते हैं। किन्तु नियतिवाद के व्यापक अध्ययन से ज्ञात होता है कि नियतिवादी पुरुषार्थ का समावेश भी नियति के अन्तर्गत कर लेते हैं। नियति से ही व्यक्ति पुरुषार्थ करता है। इसलिए पुरुषार्थ को नियतिवादी भिन्न कारण न मानकर नियति को ही कारण स्वीकार करते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के मत में नियति का स्वरूप नियति के संबंध में युवाचार्य महाप्रज्ञ (सम्प्रति आचार्य) का अपना मौलिक चिन्तन है। उन्हीं के शब्दों में “जो कुछ होता है, वह सब नियति के अधीन है। नियति का यह अर्थ ठीक से नहीं समझा गया। लोग इसका अर्थ भवितव्यता करते हैं। जो जैसा होना होता है, वह वैसा हो जाएगा- यह है भवितव्यता की धारणा, नियति की धारणा। नियति का यह अर्थ गलत है। इसी आधार पर कहा गया- 'भवितव्यं भवत्येव गजमुक्तकपित्थवत्'- जैसा होना होता है वैसा ही घटित होता है। हाथी कपित्थ का फल खाता है और वह पूरा का पूरा फल मलद्वार से निकल जाता है, क्योंकि भवितव्यता ही ऐसी है। नारियल के वृक्ष की जड़ों में पानी सींचा जाता है और वह ऊपर नारियल के फल में चला जाता है। यह भवितव्यता है। यह नियतिवाद माना जाता है। पर ऐसा नहीं है। नियति का अर्थ ही दूसरा है। नियति का वास्तविक अर्थ है- जागतिक नियम, सार्वभौम नियम, यूनिवर्सल लॉ। इसमें कोई अपवाद नहीं होता। वह सब पर समान रूप से लागू होता है। वह चेतन और अचेतन- सब पर लागू होता है। उसमें अपवाद की कोई गुंजाइश नहीं होती।"२४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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