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नियतिवाद ३०३ कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के परिणमन का कर्त्ता हर्त्ता नहीं है। इसलिए जीव अपने ही परिणामों का कर्त्ता है और अजीव अपने परिणामों का । इस प्रकार जीव दूसरे के परिणामों का अकर्ता होता है। यह बात समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार एवं सर्वविशुद्ध ज्ञान अधिकार में विस्तार से स्पष्ट की गई है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति का कर्त्ता - भोक्ता तो है ही, पर इसका आशय यह नहीं कि सर्वज्ञ के ज्ञान में उसका जो भावी परिणमन झलकता है, उसमें कुछ फेर-फार कर सकता है। अतः यद्यपि द्रव्य अपनी पर्यायों का कर्त्ता है तथापि वह फेर फार का कर्त्ता नहीं है।
क्रमबद्धपर्याय को स्वीकार करने पर नियति का प्रसंग आता है। इस बात को डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल की निम्न पंक्तियाँ प्रमाणित करती हैं- “ क्रमबद्धपर्याय अर्थात् सम्यक् नियति मानने में जगत् को पुरुषार्थ की अप्रासंगिकता दिखायी देती है, जबकि सम्यक् - नियति में अन्य कारणों की उपेक्षा न होने से इस प्रकार की कोई बात नहीं है। २४६
उपर्युक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि 'क्रमबद्धपर्याय' का स्वरूप एकान्त नियतिवाद के तुल्य नहीं है, अपितु अन्य कारणों (पुरुषार्थ, स्वभाव आदि) के सापेक्ष एक कारण है। डॉ. भारिल्ल ने पं. टोडरमल के आधार पर स्पष्ट किया है - " वस्तुतः पाँचों (काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, पुरुषार्थ) समवायों का समवाय ही कार्य का उत्पादक है। यह कहना कोरी कल्पना ही है कि पाँचों समवायों में से यदि एक भी नहीं मिला तो कार्य नहीं होगा, क्योंकि ऐसा संभव ही नहीं है कि कार्य होना हो और कोई समवाय न मिले; जब कार्य होना होता है तो सभी समवाय होते ही होते हैं। पुरुषार्थ को मुख्य करके यह बात पं. टोडरमल जी ने बहुत ही स्पष्ट लिखी है।
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यहाँ क्रमबद्धपर्याय में नियति तो निहित है, किन्तु उसमें अन्य कारणों की उपेक्षा नहीं है। अन्य कालादि कारणों के सापेक्ष होने से क्रमबद्धपर्याय रूप नियति सम्यक् नियति है।
पूर्वकृत कर्म और नियतिवाद
प्रायः भारतीय वाङ्मय में नियति एवं पूर्वकृत कर्म (भाग्य) की भेदक रेखा प्राप्त नहीं होती । पूर्वकृत कर्म के अनुसार भाग्य या दैव का निर्माण होता है तथा भारतीय चिन्तन में इन्हें नियति का पर्याय माना गया है। इस प्रकार नियति, भाग्य, दैव और पूर्वकृत कर्म एकार्थक प्रतीत होते हैं। यदि पूर्वकृत कर्मों से भाग्य या नियति का निर्माण होता है तो पूर्वकृत कर्म को कारण तथा नियति को कार्य मानना होगा। किन्तु यह भी पूर्णतः समीचीन प्रतीत नहीं होता है। कारण कि नियतिवाद एवं पूर्वकृत कर्मवाद दो भिन्न सिद्धान्त है। जो पृथक् रूप से कार्य की उत्पत्ति में कारण माने गये हैं।
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