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________________ ३०२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जानता है, वह उसकी सभी कषाय पर्यायों को भी यथार्थ रूप से जानता है। केवलज्ञानी के संबंध में भगवतीसत्र का यह वचन कि 'सो जाणइ सो ण जाणइ' भी यही बताता है- केवलज्ञान त्रैकालिक सर्वज्ञता नहीं है, वरन् विशुद्ध आध्यात्मिक या दार्शनिक ज्ञान है।०२ • डॉ. इन्द्रचन्द्र शास्त्री के अनुसार सर्वज्ञता के स्थान पर प्रयुक्त होने वाला अनन्तज्ञान भी त्रैकालिक ज्ञान नहीं हो सकता। अनन्त का अर्थ सर्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि वस्तुतः यह शब्द स्तुतिपरक है। डॉ. शास्त्री ने केवलज्ञान को आत्म-अनात्म के विवेक या आध्यात्मिक ज्ञान से संबंधित स्वीकार किया है।२४३ पं. कन्हैयालाल लोढा ने सर्वज्ञता का अर्थ अशेषज्ञता किया है। उनका कथन है कि केवलज्ञानी को कुछ भी जानना शेष नहीं रहता इसीलिए वे अशेषज्ञ या सर्वज्ञ हैं।२४४ डॉ. सागरमल जैन का मत है कि उपर्युक्त कथन के आधारों पर सर्वज्ञता का अर्थ मात्र पूर्ण दार्शनिक ज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान अथवा तत्त्वस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करें तो जैनदर्शन में पुरुषार्थ का स्थान स्पष्ट हो जाता है। गोशालक के नियतिवाद के विरुद्ध प्रस्तुत पुरुषार्थवादी धारणा की रक्षा भी की जा सकती है।२४५ क्रमबद्धपर्याय और नियतिवाद 'क्रमबद्धपर्याय' आज दिगम्बर जैन समाज का बहुचर्चित विषय है। पूज्य श्री कानजी स्वामी ने इस विषय को बड़ी ही गम्भीरता से प्रस्तुत कर अध्यात्म जगत् में एक क्रान्ति का शंखनाद किया है। नियतिवाद से संबंधित होने से यहाँ इस विषय पर चिन्तन अपेक्षित है। क्रमबद्धपर्याय से आशय यह है कि इस परिणमनशील जगत् की परिणमनव्यवस्था 'क्रमनियमित' है। जगत में जो भी परिणमन निरन्तर हो रहा है, वह सब एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित रूप से हो रहा है। स्थूलदृष्टि से देखने पर जो परिणमन अव्यवस्थित दिखाई देता है, गहराई से विचार करने पर उसमें भी एक सुव्यवस्थित व्यवस्था नजर आती है। जैसे कि नाटक के रंगमंच पर जो दृश्य व्यवस्थित दिखाये जाते हैं, वे तो पहिले से निश्चित और पूर्ण व्यवस्थित होते ही है, किन्तु जो दृश्य अव्यवस्थित दिखाये जाते हैं, वे भी पूर्व नियोजित एवं पूर्ण व्यवस्थित होते हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण द्रव्यों का अव्यवस्थित-सा दिखने वाला परिणमन भी पूर्ण निश्चित और व्यवस्थित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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