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________________ नियतिवाद ३०१ जगत् में स्वीकृत कारणता के सिद्धान्त का ही एक रूप है। जैन कर्मसिद्धान्त यह अवश्य मानता है कि व्यक्ति का प्रत्येक संकल्प एवं प्रत्येक क्रिया अकारण नहीं होती है, उसके पीछे कारण रूप में पूर्ववर्ती कर्म रहते हैं। हमारी सारी क्रियाएँ, समग्र विचार और मनोभाव पूर्वकर्म का परिणाम होते हैं, उनसे निर्धारित होते हैं। जैन विचारणा में कर्म सिद्धान्त के साथ-साथ त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ की धारणा स्वीकृत रही है। यही दो ऐसे प्रत्यय हैं जिनके द्वारा नियतिवाद का तत्त्व भी जैन विचारणा में प्रविष्ट हो जाता है। 'नियति' कारण-कार्य सिद्धान्त है, इसमें 'नियति' कारण से सभी कार्य नियत होते हैं। सर्वज्ञतावाद में कार्य-कारण किस प्रकार घटित होंगे, इसको पहले से जाना जा सकता है। नियतिवाद में सब कुछ नियत मानने पर भी सर्वज्ञता को मानना आवश्यक नहीं है। बिना सर्वज्ञता के भी नियतिवाद को स्वीकार किया जा सकता है। इसलिए यहाँ उल्लेखनीय है कि जहाँ भी गोशालक के नियतिवाद का स्वरूप प्राप्त होता है, वहाँ सर्वज्ञता की कोई चर्चा प्राप्त नहीं होती है। सर्वज्ञत्व के इस अर्थ को लेकर कि सर्वज्ञ हस्तामलकवत् सभी जागतिक पदार्थों की त्रैकालिक पर्यायों को जानता है, जैन विद्वानों ने भी काफी ऊहापोह किया है। इस संबंध में आचार्य कुन्दकुन्द, याकिनी सुनू हरिभद्र, पं. सुखलाल जी, डॉ. इन्द्रचन्द शास्त्री, पं. कन्हैयालाल लोढा एवं डॉ. सागरमल जैन के विचार यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं समयसार और प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वज्ञता का अर्थ आत्मज्ञता किया है।२४० केवलज्ञानी आत्मज्ञ होता है। आत्मज्ञ होने के साथ वह उपयोग लगाने पर अन्य वस्तुओं को भी जान लेता है। याकिनीसुनू हरिभद्रसूरि अपने अनेक तर्क ग्रन्थों में त्रैकालिक सर्वज्ञत्व का हेतुवाद से समर्थन कर चुके थे, पर जब उनको उस हेतुवाद में त्रटि व विरोध दिखाई दिया तब उन्होंने सर्वज्ञत्व का सर्वसम्प्रदाय अविरुद्ध अर्थ किया व अपना योग सुलभ माध्यस्थ सूचित किया।२९ पं. सुखलाल जी ने आचारांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति के संदों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा, जगत् एवं साधनामार्ग संबंधी दार्शनिक ज्ञान को ही उस युग में सर्वज्ञत्व माना जाता था, न कि त्रैकालिक ज्ञान को। आचारांग का यह वचन 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' यही बताता है कि जो एक आत्मस्वरूप को यथार्थ रूप से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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