SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण (२) नियतिवादियों की स्वमान्यता में दोष "अतादवस्थ्यमनित्यतां ब्रूमः इति वचनप्रामाण्यात्" जो जैसा है वह वैसा नहीं रहे तो वह अनित्य है। पूर्वोक्त दूषणों के भय से प्रथम द्वितीय आदि क्षण में नियति के रूप में परस्पर विशेष भाव मानोगे तो बलात् नियति के रूप में अनित्यता आ जाएगी। नियति के प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप होने से नियतियाँ बहुत हो जायेंगी । नियतिवादी द्वारा मान्य नियति की एक रूप प्रतिज्ञा के दोषपूर्ण होने का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। २१३ ( ३ ) नियति में व्यतिरेक असंभव नियति के अनुसार कार्य में सहकारी कारण नियति से ही प्राप्त होते हैकहा गया है हेतुनान्वयपूर्वेण, व्यतिरेकेण सिद्धयति । . २१४ नित्यस्याव्यतिरेकस्य, कुतो हेतुत्वसंभवः ।। अर्थात् कार्य के साथ जिसका अन्वय और व्यतिरेक संबंध दोनों हो, वही हेतु कारण हो सकता है। जो नित्य तथा अव्यतिरेकी हो, वह कारण नहीं बन सकता । इस न्याय से सहकारी के होने पर कार्य होता है तथा नहीं होने पर नहीं होता है। इसलिए सहकारी कारण हो सकता है, किन्तु नियति नहीं । कारण कि नियति में व्यतिरेक असंभव है। (४) नियति की एकरूपता असिद्ध नियति के एक रूप होने पर उससे जन्य सभी कार्य एक रूप होने चाहिए, क्योंकि 'कारण का भेद हुए बिना कार्यभेद कदापि नहीं हो सकता है। इसके उपरान्त भी कार्यभेद होता है तो वह निर्हेतुक हो जाएगा। २१५ प्रश्न किया जा सकता है कि यह भिन्नता नियति से है या अन्य से। नियति से है तो नानारूपता कैसे संभव है? इस नानारूपता के लिए बहुत विशेषण अंगीकार किये जाने चाहिए। तब फिर प्रश्न होता है कि ये विशेषण नियति से हैं अथवा किसी दूसरे से ? यदि नियति से माना जाए तो अनवस्था दूषण होता है और अन्य से होता है तो स्वमत में भेद उत्पन्न हो जाता है। २१६ (५) अनेक रूप नियति का खण्डन अनेक रूप नियति मूर्त है या अमूर्त ? मूर्त होने पर नामान्तर से कर्म को ही स्वीकार किया गया है क्योंकि कर्म पुगल रूप होने से मूर्त रूप भी है और अनेक रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy