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नियतिवाद २९५ भी है। इस प्रकार आहेत मत और नियतिवाद एक हो गये क्योंकि नाम-भेद है, वस्तु का स्वरूप तो एक ही है।२१७
अमूर्त मानते हो तो नियति आकाश के समान अमूर्त होने से सुख-दुःख का हेतु नहीं बन सकती। यदि देश भेद करके आकाश को सुख-दुःख का हेतु मानते हो, जैसे- मारवाड़ देश में आकाश दुःखदायी है, शेष सजल देशों में सुखदायी है। नियतिवादी का यह तर्क भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि मारवाड़ आदि देशों में भी आकाश में रहे हुए पुद्गल ही सुख-दुःख के हेतु है। जैसे कि मरुस्थली प्रदेश में जल का अभाव है और बालू बहुत है। चलते समय पैर फँस जाते हैं, पसीना बहुत आता है, सूर्य की किरणों से बालू तप जाती है, जिससे संताप भी बहुत होता है। पानी पीने को पूरा नहीं मिलता और खोदने पर भी बहुत प्रयत्न करने पर मिलता है। इसलिए इन देशों में बहुत दुःख है। परन्तु सजल देशों में ये कारण नहीं हैं अतः वहाँ दुःख भी नहीं है। इस उदाहरण या हेतु से पुद्गल ही सुख-दुःख का हेतु है, परन्तु आकाश नहीं।२१८ (६) अभावरूप नियति का खाण्डन
नियतिवादी अभावरूप नियति का स्वीकार करते हैं तो यह पक्ष अयुक्त है, क्योंकि अभाव तुच्छरूप है, शक्ति रहित है और कार्य करने में समर्थ नहीं है। जैसेकटक कुण्डल आदि का अभाव कटक-कुण्डल को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है। ऐसा हो जाए तो कोई दरिद्र ही न रहे।२१९
नियतिवादी कहते हैं कि घटाभाव है वह मृत्पिंड है। उस घटाभाव रूप मृत्पिंड से घट उत्पन्न होता है। तब मिट्टी के पिण्ड को तुच्छरूप कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि वह अपने स्वरूप से विद्यमान है। अतः अभाव पदार्थ की उत्पत्ति में हेतु क्यों नहीं हो सकता?
यह पक्ष भी असमीचीन है। भावाभाव का आपस में विरोध होने से मिट्टी का पिण्ड अभाव रूप नहीं हो सकता। यदि मिट्टी भाव रूप है तो अभाव रूप कैसे है और अभाव रूप है तो भावरूप कैसे है? नियतिवादी कहते हैं कि मिट्टी स्वरूप की अपेक्षा से भावरूप है और पररूप की अपेक्षा से अभाव रूप है। इसलिए भावाभाव दोनों के अलग निमित्त होने से कोई दूषण नहीं है।
ऐसा मानने पर मिट्टी का पिण्ड भावाभावरूप होने से अनेकान्तात्मक स्वरूप होगा। यह अनेकान्तात्मक स्वरूप जैनमतावलम्बी स्वपरभावादि से स्वीकार करते हैं। तब नियतिवादी उत्तर देते हैं कि मृत्पिण्ड में पररूप का अभाव कल्पित है और भावरूप तात्त्विक है। इसलिए अनेकान्तवाद हमारे तर्क में प्रविष्ट नहीं होता है।२२०
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