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नियतिवाद २९३ कहने का भाव यह है कि नियति से अन्य कारणों को स्वीकार किए बिना विचित्रता संभव नहीं है। जैसे आकाश से गिरते हुए पानी में अनेकरूपता धरती के संयोग (खारा-मीठापन) के बिना संभव नहीं है।२०९ इसलिए टीकाकार ने ठीक ही कहा है- "विशेषणं विना यस्मान्न तुल्यानां विशिष्टता" अर्थात् तुल्य वस्तुओं में विशेषण बिना विशिष्टता उत्पन्न नहीं होती है। २. अन्योन्याश्रय दोष की आपत्ति
नियति से भिन्न जो भेदक (कारण) है, उनमें विचित्रता का कारण यदि नियति है तो नियति का एकरूप स्वरूप कैसे सिद्ध हो पाएगा? यदि यह माना जाए कि "तदन्यभेदरूप कार्य की अन्यथानुपपत्ति होने से नियति विचित्र रूप है" तो इस कथन से अन्योन्याश्रय दोष उत्पन्न होकर अनवस्था आ जाएगी। कारण कि नियति की यह विचित्रता तदन्यभेदक के बिना नहीं होगी और तदन्यभेदक नियति के बिना नहीं होगा।२९० जैन तत्त्वादर्श में नियतिवाद का खण्डन
बीसवीं शती के जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराज (अपर नाम-श्री विजयानन्द सूरि जी) ने 'जैनतत्त्वादर्श' में नियति के सम्बन्ध में भाव-अभाव रूप, एक-अनेक रूप, नित्य-अनित्य रूप विकल्पों के माध्यम से नियतिवाद की मान्यता को खण्ड-खण्ड कर प्रस्तुत किया है(१) नियति की नित्यता का निरसन
यदि नियति को नित्य माना जाए तो वह किसी का कारण नहीं बन सकती क्योंकि जो नित्य होता है वह सभी काल में एक रूप होता है। नित्य का लक्षण है'अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया नित्यत्वस्य व्यावर्णनात्' अर्थात् जो नष्ट नहीं होवे, उत्पन्न भी न हो, स्थिर एक स्वभाव होकर रहे, वह नित्य है। इस नित्य रूप को धारण करने वाली नियति कार्य उत्पन्न करती है तो उसे सर्वदा एक रूप कार्य को ही पैदा करना चाहिए। क्योंकि विशेषता के अभाव में वह विशेष कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकती। जगत् में विचित्रता के दर्शन से नित्य रूप नियति का निरसन हो
जाता है।२११
दूसरा तर्क देते हुए कहते हैं कि ऐसी नित्य नियति को सभी कार्य प्रथम समय में ही उत्पन्न कर लेने चाहिए, क्योंकि नियति का जो नित्यकरण स्वभाव द्वितीय क्षण में है वही स्वभाव प्रथम समय में भी विद्यमान है। यदि प्रथम क्षण में द्वितीयादि क्षणवर्ती कार्य करने की शक्ति नहीं है तो द्वितीयादि क्षण में भी कार्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि प्रथम द्वितीयादि क्षण में कुछ भी विशेष नहीं है।२१२
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