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२९० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
यदि यह कहा जाय कि नियति का उत्तर परिपाक नियति के पूर्व परिपाक से होता है और नियति का प्रथम परिपाक नियति के अन्तिम अपरिपाक से होता है, इस प्रकार नियति के परिपाक विशेष से ही नियति स्वरूप की सिद्धि हो जाएगी तो यह कथन भी उचित नहीं हैं। क्योंकि उक्त कल्पना करने पर जिस समय कहीं एकत्र घट जनक नियति का परिपाक होगा उस समय अन्यत्र भी घटोत्पत्ति होगी। यदि इस दोष के निवारणार्थ प्रतिसंतान में नियतिभेद की कल्पना की जाएगी तो नियति और परिपाक में द्रव्य और पर्याय से कोई अन्तर नहीं रहेगा, मात्र नाम में ही विवाद रह जाएगा, जिसका कोई महत्त्व नहीं है।२९७ ५. शास्त्रोपदेश की व्यर्थता एवं शुभाशुभ क्रियाफल के नियम का अभाव
टीकाकार यशोविजय कहते हैं कि नियतिवाद को स्वीकार करने पर शास्त्रोपदेश की व्यर्थता की प्रसक्ति होगी। तब तो उपदेश के बिना ही नियतिकृत बुद्धि से नियति के द्वारा ही अर्थ का ज्ञान हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि नियतिवाद को स्वीकार करने पर दृष्ट-अदृष्ट के फल की एवं शास्त्र-प्रतिपादित शुभाशुभ क्रिया के फल के नियम व्यवस्था नहीं बन सकेगी।९८ सन्मति तर्क टीका में नियतिवाद का स्वरूप एवं उसका निरसन
सन्मति तर्क के तृतीय काण्ड 'ज्ञेय मीमांसा' में आचार्य सिद्धसेन ने ज्ञेय पदार्थों की चर्चा करते हुए उनको अनेकान्त दृष्टि से स्थापित करने का सफल प्रयास किया है। इसी शृंखला में उन्होंने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की एकान्तता को मिथ्यात्व और समवाय को सम्यक्त्व बताया है। सिद्धसेन दिवाकर के टीकाकार अभयदेवसूरि (१०वीं शती) विरचित तत्त्वबोधविधायिनी टीका में इन सभी एकान्त वादों का निरूपण एवं निरसन सम्प्राप्त होता है। उनमें से नियतिवाद का स्वरूप प्रतिपादन और खण्डन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा हैनियतिवाद का स्वरूप
नियतिवादी कहते हैं- "सर्वस्य वस्तुनस्तथातथानियतरूपेण भवनाद् नियतिरेव कारणमिति' १९९ अर्थात् सभी वस्तुओं के तथा-तथा नियत रूप होने के कारण नियति ही एकमात्र कारण है। इस प्रतिज्ञावाक्य की सिद्धि में वे निम्न तर्क देते हैं
"तीक्ष्णशस्त्राापहता अपि तथामरणनियतताऽभावे जीवन्त एव दृश्यन्ते, नियते च मरणकाले शस्त्रादिघातमन्तरेणापि मृत्युभाज उपलभ्यन्ते। '२००
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