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नियतिवाद २९१ तीक्ष्ण शस्त्रादि से उपहत होकर भी जीव उस प्रकार से मरण की नियतता के अभाव में जीवित ही दिखाई पड़ते हैं और मरणकाल के नियत होने पर शस्त्रादि के घात के बिना भी मृत्यु के भाजन बन जाते हैं।
"न च नियतिमन्तरेण स्वभावः कालो वा कश्चिद् हेतुः यतः कण्टकादयोऽपि नियत्यैव तीक्ष्णादितया नियताः समुपजायन्ते न कुण्ठादितया'२०९ नियति के अलावा स्वभाव तथा काल कोई हेतु नहीं होता, क्योंकि कण्टकादि भी नियति से ही तीक्ष्णता आदि के साथ नियत रूप से उत्पन्न होते हैं, कुण्ठ (भोंटा) आदि रूप से नहीं।
"कालोऽपि शीतादेर्भावस्य तथानियततयैव तदा तत्र-तत्र तथा-तथा निर्वर्तकम्। २०२ काल भी शीतादि भाव को तथारूप नियतता के कारण ही उस-उस समय में उस-उस स्थान पर उस-उस प्रकार से सम्पादित करता है। निरसन
नियति को ही कारण मानना असत् है, इसके अनेक हेतु हैं, यथा
१. नियति को मानने पर शास्त्र की व्यर्थता एवं शुभाशुभ क्रिया फल का अभाव- नियतिवादी के मत में शास्त्र के उपदेशादि की व्यर्थता का प्रसंग आता है। क्योंकि नियतिकृत बुद्धि वाले व्यक्ति के शास्त्रादि के उपदेश के बिना भी नियति से ही अर्थज्ञान हो जाएगा। नियति को ही कारण मानने पर दूसरा दोष यह होगा कि दृष्ट एवं अदृष्ट के फल और शास्त्र में प्रतिपादित शुभाशुभ क्रिया के फल के नियम का अभाव हो जाएगा।२०३
२. नियति से ज्ञान-अज्ञान में अभेद एवं अनियमता असिद्ध - यदि फिर भी नियति को कारण माना जाता है, तो समीचीन नहीं है। नियति की एक स्वभावता स्वीकार करने पर विसंवाद यानी अज्ञान (मिथ्याज्ञान), अविसंवाद यानी ज्ञान आदि के भेद के अभाव का भी प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। कारण कि ज्ञान को उत्पन्न करने वाली नियति ही अज्ञान को उत्पन्न करने में कैसे समर्थ हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती।
उक्त दोष-निवारण हेतु नियतिवादी कहते हैं- 'अनियमेन नियते: कारणत्वाद् अयमदोष इति' अर्थात् अनियम से नियति को हेतु मानने के कारण यह दोष नहीं आता है। आचार्य कहते हैं- 'न, अनियमे कारणाभावत्'- यह भी उचित नहीं है क्योंकि अनियम में कारण का अभाव है।
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