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नियतिवाद २८९ "न च तन्मात्रभावादेर्युज्यते अस्या विचित्रता। तदन्यभेदकमुक्त्वा सम्यग्न्यायाऽविरोधतः।। न जलस्यैकरूपस्टा वियत्पाताद् विचित्रता।
उषरादिधराभेदमन्तरेणोपजायते।। १९३३ कारिका में स्पष्ट किया गया है कि अन्य भेदक के बिना नियति में भी वैचित्र्य नहीं हो सकता। आकाश से जो जल बरसता है वह सब जगह समान होता है, उसमें जो वैविध्य आता है वह ऊषर और उपजाऊ आदि विभिन्न भूमियों के सम्पर्क से ही होता है। जिस भूमि में जो जल गिरता है उसमें उस भूमि के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का सम्बन्ध होने से मेघस्थ जल तथा अन्यत्र गिरने वाले जल से वैलक्षण्य आ जाता है। इस सम्पर्क के बिना जल में वैलक्षण्य नहीं होता, यह तथ्य सर्वलोकमान्य है। ३. सर्वहेतुता का लोप
नियति से भिन्न वस्तु को वैचित्र्य का सम्पादक या भेदक माना जाए तो उस भेदक को नियतिजन्य स्वीकार करना होगा, अन्यथा नियति में सर्वहेतुत्व का सिद्धान्त खण्डित हो जाएगा। सर्वहेतुत्व से आशय है सभी वस्तुओं का एक हेतु 'नियति'। यदि उस भेदक को नियतिजन्य मानेंगे तो एकरूप नियति से उत्पन्न होने के कारण उस भेदक में विचित्रता नहीं होगी। जब भेदक स्वयं विचित्र नहीं होगा तो उससे उत्पन्न नियति में विचित्रता असंभव है।९४ ४. नियति से वैविध्य की कल्पना अशक्य
नियति में स्वभावभेद की कल्पना कर उसके द्वारा नियति के कार्यों में भेद अर्थात् वैविध्य की कल्पना की जाएगी तो स्वभाव का आश्रय लेने के कारण नियतिवाद का ही परित्याग हो जाएगा।९५
यदि यह कहा जाय कि "नियति का परिपाक ही नियति का स्वभाव है, अत: वह नियतिस्वरूप ही है, इसलिए उसे कार्य-वैचित्र्य का प्रयोजक मानने पर भी कार्य में अन्य हेतुत्व की प्रसक्ति न होने से नियतिवाद का परित्याग नहीं होगा" तो यह मानना ठीक नहीं है। क्योंकि नियति के परिपाक को नियतिमात्र से जन्य मानने पर नियति का परिपाक भी नियति के समान वैचित्र्यहीन ही होगा। अत: उससे भी कार्य में वैचित्रय न हो सकेगा। यदि उसे नियति से भिन्न हेतु से जन्य मानकर उसमें वैचित्र्य माना जाएगा तो नियति से अतिरिक्त कारण की सिद्धि हो जाने से नियतिवाद के परित्याग की आपत्ति अपरिहार्य हो जाएगी।१९६
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