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२८८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण १. नियति की एकरूपता असंभव
कार्यों की अनेकरूपता दृष्टिगत होने से नियति को एक स्वरूप न मानकर विचित्र रूप ही मानना होगा। इस अभिप्राय से नियति की एकरूपता को असंभव बताते हुए जैनाचार्य हरिभद्रसूरि फरमाते हैं
नियतेर्नियतात्मत्वान्नियतानां समानता।
तथानियतभावे च बलात् स्यात् तद्विचित्रता।।१९२ उपर्युक्त श्लोक पर टीका करते हुए यशोविजय दो तर्क देते हैं
(१) “घटो यदि पटजनकाऽन्यूनाऽनतिरिक्तहेतुजन्यः स्यात्, पट: स्यात्' अर्थात् घट यदि पट के कारणों से अन्यून और अनतिरिक्त कारणों से उत्पन्न होगा तो घट भी पट हो जाएगा। तात्पर्य यह है कि जितने कारणों से पट उत्पन्न होता है उतने ही कारणों से घट उत्पन्न होगा। उन कारणों से एक भी कम नहीं (अन्यून)
और एक भी अधिक नहीं (अनतिरिक्त)। इस प्रकार घट के कारणों में यदि पट के किसी कारण का अभाव अथवा पट के कारणों से अतिरिक्त किसी नये कारण का सन्निवेश नहीं होगा, तो घट भी पट ही हो जाएगा, पट से भिन्न नहीं हो सकेगा। कारणों में सर्वथा साम्य रहने पर कार्यों में वैषम्य नहीं हो सकता, अन्यथा समान कारणों से उत्पन्न होने वाले दो पटों में भी वैजात्य हो जाएगा।
(२) "घटजनकं यदि पटं न जनयेत् पटजनकाद् भिद्योत' अर्थात् घट का जो कारण पट के उत्पादन में अनपेक्षित होगा वह पट के जनक से भिन्न होगा। अभिप्राय यह है कि पटोत्पत्ति में जो कारण क्रियाशील नहीं होता है, तो वह पट से भिन्न घट को उत्पन्न करता है। क्योंकि दोनों के कारणों में भेद उत्पन्न हो जाने से ऐसा संभव हो पाता है।
इस प्रकार उपर्युक्त तकों से घट, पट आदि कार्यों में विचित्रकारणजन्यत्व सिद्ध होता है। अतः एकरूप नियति से दोनों की उत्पत्ति मानना अयुक्त है। २. नियति से अन्य कोई भेदक अपेक्षित
हरिभद्र कहते हैं कि नियति से अन्य यदि उसका कोई भेदक नहीं माना जाएगा तो नियति के सामान्य स्वरूप से अथवा उसके परिणाम से उसमें विचित्रता सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि विचित्रता की सिद्धि सत् तर्क के अविरोध से ही सिद्ध हो सकती है। जिसे श्लोकाबद्ध रूप में आचार्य हरिभद्र ने इस प्रकार प्रकट किया है
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