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नियतिवाद २८७ होती है। पक्षी आदि का बैठना भी इनमें से एक संयोग है तथा ज्ञाता की इच्छा के अनुसार वस्तु की नियति का अतिक्रमण कर पुष्पों में वर्ण संस्थान की विपरीतता देखी जाती है। काल में अपाक और अकाल में पाक तथा पुरुष की इच्छा और प्रयत्न आदि के कारण नियम का अभाव देखा जाता है। नियम का अभाव होने से नियति का अभाव सिद्ध होता है।८५ नियतिवादी इस शंका का उत्तर देते हुए कहते हैं कि इसमें भी नियति ही कारण है। क्योंकि बीजादि की नियति, उदक, काल, वायु, आतप, पुरुषेच्छा , प्रयत्न आदि के होने पर ही पूर्ण होती है।८६ ।।
पुरुष की व्यग्रता, अव्यग्रता आदि नियति से ही होती है। सर्वज्ञ भी उसी समस्त अनादि मध्यान्त स्वरूप से अप्रच्युत परिणाम वाली वस्तु नियति को एक एवं अनेक रूप वाली जानते हैं तथा बंधन एवं मोक्ष की प्रक्रिया को भी नियति से ही स्वीकार करते हैं।१८८ नियतिवाद का निरसन
१. नियति से प्रवृत्ति मानने पर पूर्व-पश्चात् एवं युगपद् का व्यवहार संभव नहीं- नियति के सर्वात्मक होने से सदैव सब वस्तुएँ सब आकार वाली हो जाएँगी।८९ यदि पदार्थों की प्रवृत्ति नियतिकृत ही हो तो 'यह पहले' 'यह पश्चात्' इस प्रकार का व्यवहार नहीं होगा, क्योंकि सभी बीजादि में नियति सदैव सन्निहित है। यदि नियति से ही यह पूर्व-पश्चात का बोध होता है तो ऐसा मन्तव्य उचित नहीं है, अनर्थक होने के कारण। इस प्रकार के विकल्प व्यवहार में काल ही कारण होता है, ऐसा सबके द्वारा स्वीकार किया गया है। क्रम व्यवहार के लिए पूर्व आदि शब्दों का आश्रय लेना होता है और पूर्व आदि के आश्रय में नियति का कोई प्रयोजन नहीं है। ९० ।
२. नियति को स्वीकार करने पर उपदेश की निरर्थकता- नियति को स्वीकार करने पर तो हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के लिए आचार का उपदेश निरर्थक हो जाएगा। क्योंकि चक्षु से जिस प्रकार रूप का ग्रहण नियत होता है उसी प्रकार बिना प्रयत्न के ही उनकी सिद्धि हो जाएगी। यदि ऐसा कहा जाय कि प्रयत्न भी नियति से ही होता है तब तो समस्त लोक शास्त्रों के आरम्भ के प्रयोजन का कथन करना निरर्थक हो जाएगा तथा लोक एवं आगम में विरोध उत्पन्न होगा।९१ शास्त्रवार्तासमुच्चय में नियतिवाद का खण्डन
हरिभद्रसूरि (८वीं शती) विरचित शास्त्रवार्तासमुच्चय में नियतिवाद का निरसन समुपलब्ध होता है। वहाँ नियतिवाद के खण्डन में अनेक तर्क दिए गए हैं। प्रमुख तर्क इस प्रकार हैं
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