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________________ २८४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण सकडाल पुत्र बोला- “भन्ते ! मैं उसे फटकारूंगा या पीहूँगा या बाँध दूँगा या रौंद डालूँगा या तर्जित करूँगा-धमकाऊँगा या थप्पड़-घूसे मारूँगा या उसका धन आदि छीन लूँगा या कठोर वचनों से उसकी भर्त्सना करूँगा या असमय में ही उसके प्राण ले लूँगा । " भगवान सकडाल को समझाते हुए कहते हैं कि यदि सभी नियतिकृत हैं तो तुम्हें इन सब स्थितियों में शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह सभी स्थितियाँ नियत थी। इसके बावजूद भी तुम अपने सिद्धान्त को भुलाकर उस व्यक्ति को हटाने, मारने आदि का प्रयत्न करते हो तो स्वमत को स्वयं ही खण्डित करते हो। अतः " तो जं वदसि नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव नियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा " प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि के न होने की तथा होने वाले सब कार्यों के नियत होने की तुम्हारी बात असत्य हैं। १६६ प्रश्नव्याकरण की टीकाओं में नियतिवाद का खण्डन प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेवसूरि (११वीं शती) ने "मृषावादिता चैवमेषां सकललोक प्रतीतपुरुषकारापलापेन प्रमाणातीतनियमिताभ्युपगमादिति' १९६७ शब्दों से नियतिवादी के मत को मृषा कहा है। क्योंकि समस्त लोक में प्रतीत होने वाले पुरुषकार का अपलाप करना उचित नहीं है तथा इस प्रकार प्रमाणों से अतीत नियतिमत को स्वीकार करना भी समीचीन नहीं है। प्रश्नव्याकरण के अन्य टीकाकार ज्ञानविमलसूरि ने भी नियतिवाद के विपक्ष में कहा है- "तदप्यलीकं, अचेतनस्य कर्त्तृत्वानुपलम्भात् नियतेरनाश्रितत्वानुपलम्भात्'' १९६८ अर्थात नियतिवादियों का कथन अलीक (मिथ्या) है, क्योंकि अचेतन कर्ता उपलब्ध नहीं होता और नियति किसी के आश्रित ही उपलब्ध होती है, अनाश्रित नहीं । द्वादशारनयचक्र में नियतिवाद का उपस्थापन एवं निरसन मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) ने द्वादशारनयचक्र नामक ग्रन्थ में नियतिवाद के स्वरूप का उपस्थापन कर निरसन किया है। सिंहसूरि ने न्यायागमानुसारिणी टीका में द्वादशारनयचक्र के प्रतिपाद्य को स्पष्ट किया है। यहाँ दोनों के आधार पर नियतिवाद के स्वरूप का उपस्थापन एवं खण्डन प्रस्तुत है । नियतिवाद का उपस्थापन - पुरुष न स्वतन्त्र है और न ज्ञाता। क्योंकि निद्रा की अवस्था में उसमें स्वतन्त्रता नहीं रहती । जैसे- वेग से युक्त वस्तु या व्यक्ति तट पर न रुककर उससे आगे चले जाते हैं। १६९ उसी प्रकार पुरुष समस्त कार्यों को करने में स्वतन्त्र नहीं है। इसी प्रकार उसके ज्ञाता होने पर भी अनिष्ट अर्थ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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