________________
नियतिवाद २८३ एक दिन वह अशोक वाटिका में अपनी धर्म-क्रियाओं में रत था, उस समय उसके समक्ष एक देव प्रकट हुआ। उसने कहा- "कल प्रात: यहाँ महान् अहिंसक, अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक, तीनों काल के ज्ञाता, परम पूज्य, राग-द्वेष विजेता जिन भगवान पधारेंगे। यह सुनकर वह प्रातः सहसाम्र वन में गया और वहाँ भगवान महावीर के दर्शन कर अभिभूत हुआ। उनके गुणों से प्रभावित होकर उसने भगवान को अपनी कर्मशाला में शय्या-संस्तारक हेतु आमन्त्रित किया। भगवान उसकी कर्मशाला में पधारे और वहाँ भगवान व सकडालपुत्र के बीच 'नियतिवाद' पर विशेष चर्चा हुई।
सकडालपुत्र गोशालक नियतिवाद का उपासक था। नियतिवाद मतानुसार संसार के सभी पदार्थ एवं कार्य नियतिकृत हैं तथा प्रयत्न और पुरुषार्थ शून्य हैं। इस मान्यता को अनुचित सिद्ध करने हेतु भगवान सकडालपुत्र से प्रश्न करते हैं कि ये मिट्टी के बर्तन तुम्हारे प्रयत्न, पुरुषार्थ या उद्यम द्वारा बनते हैं या प्रयत्न आदि के बिना? तब नियतिवादी सकडालपुत्र अपने गुरु गोशालक के मत को स्थापित करते हुए कहता है- 'भन्ते! अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कार-परक्कमेणं। नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा१६ अर्थात् भगवन् ! प्रयत्न, पुरुषार्थ तथा उद्यम के बिना ही बर्तन बनते हैं। प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम का कोई अस्तित्व या स्थान नहीं है, सभी भाव होने वाले कार्य नियति निश्चित हैं।
कोई भी मत सैद्धान्तिक पक्ष से ही नहीं व्यावहारिक पक्ष से भी उतना ही ठोस एवं पुष्ट होना चाहिए। मात्र सैद्धान्तिक पक्ष से प्रतिष्ठित सिद्धान्त वचन विलास से अधिक कुछ नहीं है। यही दोष बताते हुए भगवान महावीर सकडाल को प्रत्युत्तर देते हैं- "सद्दालपुत्ता! जइ णं तुम्भं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केलयं वा कोलालभंडं अवहरेज्जा वा विक्खरेज्जा वा भिंदेज्जा वा अच्छिंदेज्जा वा परिट्ठवेज्जा वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुमं पुरिसस्स किं दंडं वत्तेज्जासि? भंते! अहं णं तं परिसं निभच्छेज्जा वा हणेज्जा वा बंधेज्जा वा महेज्जा वा तज्जेज्जा वा तालेज्जा वा निच्छोडेज्जा वा निन्भच्छेज्जा अकाले जेव जीवियाओ ववरोवेज्जा । '१६५
'सकडाल पुत्र! यदि कोई पुरुष हवा लगे हुए या धूप में सुखाए हुए तुम्हारे मिट्टी के बर्तनों को चुरा ले या बिखेर दे या उनमें छेद कर दे या उन्हें फोड़ दे या उठाकर बाहर डाल दे अथवा तुम्हारी पत्नी के साथ विपुल भोग भोगे, तो उस पुरुष को तुम क्या दंड दोगे?'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org