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२८२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण है तथा दूसरा अक्रिया को स्वीकार करने वाला है तो उनमें तुल्यता कैसे हो सकती है? यदि एक नियति से नियत होने के कारण उनमें तुल्यता मानी जाती है तो इसे निकटस्थ सुहृद् प्रतिकार कहेंगे, क्योंकि नियति अप्रामाणिक है। नियति की अप्रमाणता पहले संक्षेप में प्रदर्शित की गई है। जो यह कहा गया है कि जिस दुःखादि का मैं अनुभव करता हूँ, उसे मैंने उत्पन्न नहीं किया- यह कथन भी बालवचन की भाँति है, कारण कि अन्य जन्म में किए गए शुभ या अशुभ कर्म का भोग इस जन्म में किया जाता है। क्योंकि प्राणी स्वकृत कर्मफल के स्वामी होते हैं।१६० जैसा कि कहा गया है
यदिह क्रियते कर्म, तत्परत्रोपभुज्यते। मूलसिक्तेषु वृक्षेषु, फलं शाखासु जायते।। यदुपात्तमन्यजन्मनि शुभमशुभं वा स्वकर्म परिणत्या।
तच्छक्यमन्यथा नो कर्तुं दैवासुरैरपि हि।।९६९
जो कर्म यहाँ किया जाता है उसका फल भोग परलोक में किया जाता है, जैसे कि वृक्षों के मूल सिंचन करने पर शाखाओं पर फल प्राप्त होता है। जो अन्य जन्म में शुभ या अशुभ कर्म किया जाता है, उसका फल प्राप्त किया जाता है। वह असुरों के द्वारा भी परिवर्तनीय नहीं है।
इस प्रकार नियतिवादी अनार्य एवं अप्रतिपन्न है। वे युक्ति रहित नियतिवाद पर श्रद्धा करते हुए उसको स्वीकार करते हैं।१६२ 'अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना' उक्ति को चरितार्थ करते हुए वे (नियतिवादी) स्वमत को स्वयं की विरोधी क्रियाओं से खण्डित करते हैं। उपासकदशांग में नियतिवाद का प्रत्यवस्थान
उपासकदशांग सूत्र में नियतिवादी आजीवक मत के उपासक सकडालपुर का भगवान महावीर के साथ संवाद समुपलब्ध है। भगवान महावीर ने 'नियतिवाद' सिद्धान्त को अव्यावहारिक एवं असत्य ठहराया है।
सकडालपुत्र एक कुम्भकार था। उसकी १ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ सुरक्षित धन के रूप में, १ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ व्यापार में और १ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ घर के वैभव में लगी थीं। एक गोकुल था, जिसमें १०००० गाएँ थीं। नगर के बाहर पाँच सौ दुकानें
और बर्तन बनाने की कर्मशालाएँ थीं। ६२ वह पोलासपुर नगर का प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न व्यक्ति था।
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