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२८० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण नियतिवाद का निरसन
(i) सुख-दुःख की नियतानियतता- आगमकार नियतिवाद के स्थापन के पश्चात् निरसन करते हुए कहते हैं
एवमेयाणि जपंता, बाला पंडिअमाणिणो।
निययानिययं संतं, अयाणंता अशुद्धिया।। ५१
अर्थात् अज्ञानी और अपने आपको पण्डित मानने वाले नियतिवादी सुखदुःख आदि को नियत तथा अनियत दोनों ही प्रकार का नहीं जानते हुए बुद्धिहीन हैं।
तात्पर्य यह है कि आहेत मतानुसार कोई सुख-दुःख अवश्य होने वाले यानी नियत होते हैं, क्योंकि उन सुख-दुःखों के कारण स्वरूप कर्म का किसी अवसर विशेष में अवश्य उदय होता है। कोई सुख-दुःख नियतिकृत नहीं होते हैं, अपितु पुरुष के उद्योग, काल, ईश्वर, स्वभाव और कर्म आदि से किए हुए अनियत होते हैं। तथापि नियतिवादी सभी सुख-दुःखों को एकान्त रूप से नियतिकृत ही बतलाते हैं इसलिए सुख-दुःख के कारण को न जानने वाले नियतिवादी बुद्धिहीन हैं।२५२
आहेत मत अर्थात् जैनमतानुसार सुख-दुःख आदि कंथचित् नियति से होते हैं अर्थात् उनमें पूर्वकृत कर्म कारण होता है। कर्म का अवश्यम्भावी उदय होने पर सुखदुःख आदि प्राप्त होते हैं। कंथचित् सुख-दुःख अनियतिकृत भी होते हैं। पुरुषकार, काल, ईश्वर, स्वभाव, कर्मादिकृत सुख-दुःखादि कंथचित् अनियतिकृत होते हैं। इस प्रकार सुख-दुःखादि उद्योग (पुरुषकार) साध्य हैं, क्योंकि क्रिया से फल की उत्पत्ति होती है और वह क्रिया उद्योग या पुरुषार्थ के अधीन है। अतएव कहा भी है
"न दैवमिति सन्चिन्त्य त्यजेदुयममात्मनः।
अनुद्यमेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति। '१५३ अर्थात् “जो भाग्य में है वही होगा" यह सोचकर उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि उद्योग के बिना तिलों में से तेल कौन प्राप्त कर सकता है ? यानी कोई नहीं।
नियतिवादी प्रश्न करते हैं कि पुरुषकार समान होने पर भी फल में विचित्रता क्यों देखी जाती है ? समाधान करते हैं कि पुरुषकार की विचित्रता भी फल की विचित्रता का कारण होती है तथा समान परिश्रम करने पर भी जो किसी का फल नहीं मिलता है, उसमें अदृष्ट कारण है। यह अदृष्ट भी सुख-दुःख का हेतु है।५४
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