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स्वीकार करने पर उपर्युक्त स्थिति नहीं बनती, तथापि जैन परम्परा में नियति को कारण मानने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं, यथा- (१) कालचक्र में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी का क्रम तथा उनमें छह आरकों का विधान। (२) २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव आदि की मान्यता। (३) अकर्मभूमि में सदैव तथा कर्मभूमि में तीन आरों में स्त्री-पुरुष के युगलों की उत्पत्ति। (४) अनपवर्त्य आयुष्य वाले जीवों का आयुष्य की पूर्ण अवधि भोगकर मरण को प्राप्त होना। (५) पूर्वभवाश्रित सिद्धों, क्षेत्राश्रित सिद्धों, अवगाहना आश्रित सिद्धों का कथन भी कथंचित् नियति को मान्य करता है। एक समय में अधिकतम १०८ जीवों के सिद्ध होने का कथन इसी प्रकार का है। (६) विभिन्न गतियों में जीवों की अधिकतम आयु निश्चित है। पूर्वकृतकर्मवाद एवं जैनदर्शन में उसका स्थान
पूर्वकृतकर्मवाद एक प्रमुख सिद्धान्त है जो यह प्रतिपादित करता है कि प्राणी के द्वारा पूर्व में किए गए कर्मों का फल अवश्य प्राप्त होता है। जीव जगत् की विचित्रता में यह एक प्रमुख कारण है। प्राणी के द्वारा किए गए कर्मों का फल ईश्वर प्रदान करता है, या अपने आप प्राप्त होता है, इस विषय में भारतीय दर्शनों में मतभेद है। न्याय-वैशेषिक आदि दर्शन कर्मों का फल प्रदाता ईश्वर को मानते हैं, जबकि जैन, बौद्ध आदि दर्शन इनकी फल-प्राप्ति को स्वत: व्यवस्थापित मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि कर्म-सिद्धान्त को लेकर जितना चिन्तन जैनदर्शन में हुआ है, उतना किसी अन्य दर्शन में प्राप्त नहीं होता । ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि अष्टविध कर्मों, करणसिद्धान्त तथा पुण्य-पाप, आम्रव-संवर, बंध-निर्जरा एवं मोक्ष सदृश तत्त्वों का प्रतिपादन जैनदर्शन का वैशिष्ट्य है जो कर्म-पुद्गलों के बंधन एवं विमोचन की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। पूर्वकृत कर्मों से ही दैव अथवा भाग्य का निर्माण होता है।
कर्म के साथ पुनर्जन्म का अटूट सम्बन्ध है। इसकी पुष्टि कठोपनिषद्,' बृहदारण्यकोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद्, पुराण-साहित्य, रामायण एवं महाभारत सदृश ग्रन्थों से भी होती है। जैन एवं बौद्ध दर्शन के ग्रन्थ तो पुनर्जन्म को पुष्ट करते ही हैं, किन्तु चार्वाकदर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। उपनिषदों में कर्म-सिद्धान्त का प्रतिपादन है इसकी पुष्टि विभिन्न वाक्यों से होती है। कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते।" "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" आदि ऐसे
१ सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः। - कठोपनिषद्, १.१.६ २ पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेनेति। - बृहदारण्यकोपनिषद्, ३.२.१३ ३ संन्यासोपनिषद्, २.९८
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