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________________ xxxii जैनदार्शनिक जहाँ नियतिवाद को पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत करने में निपुण हैं, वहाँ वे उसकी एकान्त कारणता का भी निरसन करने में दक्ष हैं। जैनदार्शनिकों के कतिपय तर्क द्रष्टव्य हैं (१) सूत्रकृतांगसूत्र में नियतिवाद के निरसन में कहा गया है कि कोई सुखदुःख पूर्वकृतकर्म जन्य होने से नियत होते हैं तथा कोई सुख-दुःख पुरुष के उद्योग, काल आदि से उत्पन्न होने के कारण अनियत होते हैं। इसलिए एकान्त नियति को कारण मानना समुचित नहीं।' (२) नियतिवाद को स्वीकार करने पर शुभ क्रिया के पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं रहती, इसलिए नियतिवादी विप्रतिपन्न हैं। (३) नियति को अंगीकार करने पर हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार के लिए उपदेश निरर्थक हो जाता है। ___ (४) नियति की एकरूपता होने पर कार्यों की अनेकरूपता सम्भव नहीं हो सकती। (५) अभयदेवसरि कहते हैं कि नियति को नित्य मानने पर उसमें कारकत्व का अयोग होगा, क्योंकि नित्यत्व में परिवर्तनशीलता का अभाव होता है। नियति को अनित्य मानने पर वह स्वयं कार्य बन जाएगी, अत: उसकी उत्पत्ति के लिए किसी अन्य कारण की कल्पना करनी होगी। नियतिवाद के निरसन में जैनदार्शनिकों ने अनेक तर्क दिए हैं, जिनकी चर्चा प्रस्तुत ग्रन्थ में देखी जा सकती है। किन्तु जैनदर्शन में काललब्धि एवं सर्वज्ञता ऐसे प्रत्यय हैं, जो जैनदर्शन में कथंचित् नियति को स्वीकृत करते हैं। जैनदर्शन की यह मान्यता है कि अनादिकालीन मिथ्यादृष्टि जीव काललब्धि आने पर ही सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है। काललब्धि से आशय है समुचित काल की प्राप्ति। उसका होना नियत होता है तभी काललब्धि होती है। इसी प्रकार सर्वज्ञता को तीनों कालों के समस्त द्रव्यों एवं उनकी पर्यायों को जानने के रूप में स्वीकार किया जाता है तो भी भावी को जानने के कारण नियतता का प्रसंग उपस्थित होता है। इस नियतता के आधार पर ही विगत शताब्दियों में जैनदर्शन में क्रमबद्धपर्याय सिद्धान्त का विकास हुआ है। सर्वज्ञता का आत्मज्ञता अर्थ एवमेयाणि जंपंता, बाला पंडिअमाणिणो। निययानिययं संतं, अयाणंता अबुद्धिया।। - सूत्रकृतांग १.१.२.४. २ सन्मतितर्क ३.५३ पर अभयदेवकृत टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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