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ही वाक्य हैं। रामायण में कहा है- "याद्वशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते । " अर्थात् जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा फल प्राप्त होता है । भगवद्गीता में अनासक्त कर्मयोग का प्रतिपादन है, जिसके अनुसार फलाकांक्षा से रहित होकर कर्म किया जाना चाहिए। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" (भगवद्गीता, २.४७) वाक्य यही संदेश देता है। फलेच्छा में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति सदा कर्मों से बंधता है।
संस्कृत-साहित्य में पूर्वकृतकर्म को दैव या भाग्य कहा गया है तथा उसके अनुसार फलप्राप्ति अंगीकार की गई है । शुक्रनीति में पूर्वजन्म कृत कर्म को भाग्य तथा इस जन्म में किए गए कर्म को पुरुषार्थ कहा है, किन्तु भाग्य एवं पुरुषार्थ का दायरा इससे व्यापक है, क्योंकि इस जन्म में किया गया कर्म भी भाग्य को प्रभावित करता है। स्वप्नवासवदत्तम् में "कालक्रमेण जगतः परिवर्तमाना चक्रारपंक्तिरिव भाग्यपंक्तिः " तथा मेघदूत में "नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण" आदि वाक्य भी पूर्वकृतकर्म अथवा भाग्य के स्वरूप को प्रकट करते हैं। भर्तृहरि विरचित नीतिशतक में " भाग्यानि पूर्वतपसा खलु संचितानि काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः " वाक्य स्पष्ट करता है कि पूर्वतप से संचित भाग्य समय आने पर उसी प्रकार फल प्रदान करते हैं, जैसे वृक्ष समय आने पर फल प्रदान करते हैं। योगवासिष्ठ में प्रतिपादित है कि दैव से प्रबल पुरुषार्थ होता है। भारतीय दर्शनों में भी कर्म को विभिन्न रूपों में स्वीकृति मिली है। न्यायदर्शन में इसे अदृष्ट, सांख्यदर्शन में धर्माधर्म, मीमांसादर्शन में अपूर्व तथा बौद्धदर्शन में चैतसिक कहा गया है। योगदर्शन में कृष्ण, शुक्ल, शुक्लकृष्ण एवं अशुक्लकृष्ण के भेद से चार प्रकार के कर्म निर्दिष्ट हैं। वैदिक परम्परा में कर्म तीन प्रकार का है - संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण । पूर्वजन्म में कृतकर्म संचित हैं, जिन कर्मों का फल प्रारम्भ हो गया है वे प्रारब्ध कर्म है तथा वर्तमान में पुरुषार्थ के रूप में जो कर्म किए जा रहे हैं वे क्रियमाण कर्म हैं।
श्वेताम्बर जैनपरम्परा में प्रज्ञापनासूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, कम्मपयडि आदि ग्रन्थों में तथा दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम, कसायपाहुड, महाबंध तथा इनकी धवला, जयधवला महाधवला टीकाओं में कर्मसिद्धान्त का विस्तृत प्रतिपादन
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ब्रह्मबन्दूपनिषद्, २
रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग १५, श्लोक २३
दैवे पुरुषकारे च खलु सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
पूर्वजन्मकृतं कर्मेहार्जितं तद् द्विधाकृतम् । शुक्रनीति, १.४९.
योगसूत्र, ४.७-८
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