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________________ २७८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कोई चीज ही नहीं रहेगी। संसार परिभ्रमण का काल अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक शेष रहने पर भी सम्यक्त्व प्राप्त हो जाएगा और बिना उस काल को पूरा किये ही मुक्ति हो जाएगी। अतः प्रत्येक पदार्थ की पर्याय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से नियत है। जैनागम एवं दार्शनिक ग्रन्थों में नियतिवाद का निरूपण एवं निरसन अब यहाँ जैनागमों एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर नियतिवाद को पूर्व में प्रस्तुत कर उसका खण्डन किया जाएगा। सूत्रकृतांग और उसकी टीका में, प्रश्नव्याकरण की टीकाओं में, सन्मति तर्क की टीका में, द्वादशारनयचक्र में, शास्त्रवार्ता समुच्चय में, धर्मसंग्रहणि में, जैन तत्त्वादर्श आदि ग्रन्थों में विभिन्न तकों के द्वारा नियतिवाद के ऐकान्तिक पक्ष को अनुपयुक्त या मिथ्या बतलाया गया है। सूत्रकृतांग और उसकी शीलांक टीका में नियतिवाद का निरूपण एवं निरसन सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन में स्वसिद्धान्त तथा परसिद्धान्त की व्याख्या समुपलब्ध होती है। परसिद्धान्त के अन्तर्गत पंचभूतवादी, आत्म-अद्वैतवादी, नियतिवादी आदि कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन इस आगम में मिलता है। नियतिवाद का निरूपण निम्नांकित गाथा में हुआ है सयं कडं न अण्णेहिं, वेदयंति पुढो जिया। संगइअंतं तहा तेसिं, इहमेगेसिं आहि।।१६ अर्थात् सुख और दुःख न तो स्वयं का किया हुआ है और न दूसरे के द्वारा किया हुआ है। यह तो सांगतिक है, ऐसा इस दार्शनिक जगत् में किन्हीं (नियतिवादियों) का कथन है। जीवों द्वारा सुख-दुःख को भोगना संगइअं अर्थात् नियतिकृत है। गाथा में विद्यमान 'संगइअं' पद को व्याख्यायित करते हुए शीलांकाचार्य (९-१०वीं शती) कहते हैं- "नियतिवादी स्वाभिप्रायमाविष्करोति 'संगइअं' त्ति, सम्यक् परिणामेन गति:- यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवनं सा संगतिर्नियतिस्तस्यां भवं सांगतिकं, यतश्चैवं न पुरुषकारादि कृतं सुखदुःखादि अतस्तत्तेषां प्राणिनां नियतिकृतं सांगतिकमित्युच्यते तात्पर्य है कि नियतिवादी सम्यक् अर्थात् अपने परिणाम से जो गति है उसे 'संगति' कहते हैं। जिस जीव को जिस समय जहाँ जिस सुख-दुःख को अनुभव करना होता है, वह संगति कहलाती है। यह संगति ही नियति है और इस नियति से जो सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं, उसे 'सांगतिक' कहते हैं। अत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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