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नियतिवाद २७७ है, जिस निमित्त से होना होता है, वह निमित्त भी उस समय वही होता है और जिस प्रकार के पुरुषार्थ द्वारा होना होता है वह भी उस समय निश्चित रूप से वही होता है। इन भावों को 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' की निम्नांकित गाथाएँ प्रमाणित करती हैं
जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि।
णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा।। तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि।
को सक्कदि वारेहूँ इंदो वा तह जिणिंदो वा।। ४५ अर्थात् जिस जीव के जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियत रूप से जाना है, उस जीव के उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से वह अवश्य होता है, उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र भी टालने में समर्थ नहीं है।
पदार्थ की प्रत्येक पर्याय का द्रव्य, क्षेत्र. काल और भाव नियत है। प्रत्येक पदार्थ में प्रति समय पूर्व पर्याय नष्ट होती है और उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है। पूर्व पर्याय उत्तर पर्याय का उपादान कारण है और उत्तर पर्याय पूर्व पर्याय का कार्य है। इसलिए पूर्व पर्याय से जो चाहे उत्तर पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु नियत उत्तर पर्याय ही उत्पन्न होती है। उत्तर पर्याय के नियत होने से सर्वज्ञ उसे अपने ज्ञान में उस रूप में जान लेते हैं।
नियत पर्याय नहीं मानने पर मिट्टी के पिण्ड में स्थास कोस पर्याय के बिना भी घट पर्याय बन जाएगी। अत: यह मानना होगा कि प्रत्येक पर्याय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नियत है। किन्तु कुछ लोग प्रत्येक पर्याय का द्रव्य, क्षेत्र और भाव तो नियत मानते हैं, किन्तु काल को नियत नहीं स्वीकार करते। उनके अनुसार काल को नियत मानने से पौरुष व्यर्थ हो जाता है। किन्तु वास्तविकता यह नहीं है क्योंकि समय से पहले किसी काम को पूरा कर लेने से ही पौरुष की सार्थकता नहीं होती। उदाहरणार्थ- किसान योग्य समय पर गेहूँ बोता है और खूब श्रमपूर्वक खेती करता है। उसके बाद ही नियत काल में पककर गेहूँ तैयार होता है। नियत काल में गेहूँ के होने से क्या किसान का पौरुष व्यर्थ हो जाएगा? यदि वह पौरुष न करता तो समय पर उसकी खेती पककर तैयार न होती, अत: काल की नियतता में पौरुष के व्यर्थ होने की आशंका निर्मूल है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि द्रव्य, क्षेत्र और भाव नियत होते हुए काल अनियत नहीं हो सकता। यदि काल को अनियत माना जाएगा तो काललब्धि जैसी
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