________________
२७६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
अर्थात् उपादान और निमित्त इन दोनों हेतुओं (कारणों) द्वारा उत्पन्न होने वाले कार्य से जिसका ज्ञान होता है, ऐसी भवितव्यता दुर्निवार है। क्योंकि अहंकार से पीड़ित यह प्राणी तंत्र-मंत्रादि सहकारी कारणों को मिलाकर भी सुखादि कार्यों के उत्पन्न करने में अनीश्वर (असमर्थ) है। अष्टशती में भवितव्यता
अकलंक देव(७२०-७८० ई.शती) ने भी 'अष्टशती' में भवितव्यता के संबंध में एक बहुत ही सुन्दर श्लोक उद्धत किया है, जो इस प्रकार है
तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः।
सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता।। जैसी भवितव्यता होती है वैसी ही बुद्धि हो जाती है, व्यवसाय (प्रयत्न) भी वैसा ही होता है और सहायक भी वैसे ही मिल जाते हैं। गोम्मटसार एवं स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में नियति
नियति को परिभाषित करते हुए गोम्मटसार कर्मकाण्ड में कहा हैजत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा।
तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो दु।।१४४
अर्थात् जो, जब, जिसके द्वारा, जैसे, जिसका नियम से होने वाला है, वह उसी काल में, उसी के द्वारा, उसी रूप से नियम से उसका होता है, ऐसा नियति का स्वरूप मानना नियतिवाद है। . नियति कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है। न वह कोई द्रव्य है, न किसी द्रव्य का कोई गुण है और न किसी की कोई पर्याय। नियति उस काल का नाम है जिसमें कोई विवक्षित कार्य सिद्ध होना होता है। इसी प्रकार भवितव्य भी उस कार्य का नाम है जो उस काल में सिद्ध होना होता है। 'नियति' शब्द कालसूचक है और 'भवितव्य' भावसूचक। 'नियति' का अर्थ है निश्चित समय पर किसी कार्य का होना भवितव्य' का अर्थ है वह कार्य जो कि उस निश्चित समय में होने योग्य है। 'नियति' या निश्चित समय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, निमित्त व पुरुषार्थ सब पर लागू होता है। तात्पर्य यह है कि जिस द्रव्य में कार्य या अवस्था उत्पन्न होनी होती है वह उस समय निश्चित समय निश्चित रूप से वही होता है, जिस स्थान पर वह कार्य होना होता है वह क्षेत्र भी उस समय निश्चित रूप से वही होता है, वह समय भी निश्चित रूप से वही होता है, जिस प्रकार का तथा जो कार्य होना होता है वह कार्य या भवितव्य भी उस समय वही होता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org