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________________ २६० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः किं कारणं? दैवमलङ्घनीयं। तस्मान्न शोचामि न विस्मयामि यदस्मदीयं नहि तत्परेषाम्।।१।। द्वीपादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात्। आनीय झटिति घटयति विधिरभिमतमभिमुखीभूतम्।।२।। सा सा संपाते बुद्धि-र्व्यवसायश्च तादृशः। सहायास्तादृशा ज्ञेया यादृशी भवितव्यता।।३।। प्राप्तव्य अर्थ को मनुष्य प्राप्त करता है इसमें क्या कारण है। निश्चित रूप से दैव (नियति) ही इसमें कारण है। इसलिए न तो मैं शोक करता हूँ, न आश्चर्य करता हैं। क्योंकि जो हमारा है वह दूसरों का नहीं। विधि (दैव/नियति) अन्य द्वीप से भी, जलनिधि के बीच से भी, अन्य दिशा के छोर से भी अभिमत वस्तु को लाकर सम्मुख कर देता है। बद्धि वैसी ही हो जाती है, व्यवसाय भी वैसा हो जाता है और सहायक भी वैसे मिल जाते हैं, जैसी भवितव्यता होती है। नन्दीसूत्र की अवचूरि में नियतिवाद नन्दीसूत्र की अवचूरि में नियतिवाद का स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत है- "ते हि एवं आहुः -नियतिः नाम तत्त्वान्तरं अस्ति यद् वशादेते भावाः सर्वेऽपि नियतेन एव रूपेण प्रादुर्भावमश्नुवते, नान्यथा। तथाहि यत् यदा यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेन एव रूपेण भवदुपलभ्यते। अन्यथा कार्यकारणभावव्यावस्था प्रतिनियतरूपावस्था च न भवेत्, नियामकाभावात्। तत एवं कार्यनयत्यतः प्रतीयमानामेनां नियतिं को नाम प्रमाणपथकुशलो बाधितुं क्षमते? मा प्रापदन्यत्रापि प्रमाणपथव्याघातप्रसंगः। तथा च उक्तं"नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवंति यत्। ततो नियतिजा ह्येते, तत्स्वरूपानुवेधतः।। यत् यदैव यतो यावत्ततदैव ततस्तथा। नियतं जायते न्यायात्, क एनां बाधितुं क्षमः?' अर्थात् नियति नामक पृथक् तत्त्व है, जिसके वश में ये सभी भाव हैं और वे नियत रूप से ही उत्पन्न होते हैं, अन्यथा रूप से नहीं होते हैं। क्योंकि जो जब-जब जिससे होना होता है, वह तब तब उससे ही नियत रूप से होता हुआ प्राप्त होता है। ऐसा नहीं मानने पर कार्यकारणभावव्यवस्था और प्रतिनियत व्यवस्था (जिससे जो नियत रूप से होता है) संभव नहीं है, नियामक (नियन्ता) का अभाव होने से। इसलिए कार्य के नियत होने से प्रतीयमान नियति को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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