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________________ नियतिवाद २६१ कौन प्रमाणमार्गी बाधित कर सकता है? अन्यत्र भी प्रमाण पथ के व्याघात का प्रसंग नहीं आता है। जैसा कि कहा गया है- नियत रूप से ही सब पदार्थ उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये अपने स्वरूप से नियतिज हैं। जो जब, जिससे, जितना होना होता है; वह, तब उससे और उतना नियत रूप से न्यायपूर्वक होता है, इस नियति को कौन बाधित कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं । , आचारांग सूत्र की शीलांक टीका में नियतिवाद आचारांग सूत्र पर आचार्य शीलांक द्वारा रचित टीका में भी नियतिवाद का उल्लेख सम्प्राप्त होता है। यथा- ' तथान्ये नियतितः एवात्मनः स्वरूपमवधारयन्ति, का पुनरियं नियतिरिति उच्यते, पदार्थानामवश्यंतया यथाभवने प्रयोजककर्त्री नियतिः, उक्तं च- 'प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः । । ९२ · कुछ मतावलम्बी नियति से ही वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। 'यह नियति क्या है' तो उसके संबंध में कहा गया है कि पदार्थों का आवश्यक रूप से जिस प्रकार होना पाया जाए उसमें प्रयोजककर्त्री नियति होती है। जैसा कि कहा गया है“नियतिबल के आश्रय से जो पदार्थ शुभ या अशुभ रूप में प्राप्तव्य होता है, वह अवश्य प्राप्त होता है। महान् प्रयत्न करने पर भी अभाव्य कभी नहीं होता और भाव्य का कभी नाश नहीं होता है। आचार्य सिद्धसेन द्वारा उपस्थापित नियतिवाद १. नियति- द्वात्रिंशिका में निरूपित नियतिवाद सन्मतितर्क, न्यायावतार, द्वात्रिंशत् - द्वात्रिंशिका ये रचनाएँ सिद्धसेन दिवाकर (५वीं शती) की प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। पाँच कारणों के समूह में नियति को परिगणित कर सिद्धसेन ने सन्मतितर्क में एक गाथा रची है । र बत्तीस द्वात्रिंशिकाओं में सोलहवीं द्वात्रिंशिका 'नियति' पर ही लिखी है । इस द्वात्रिंशिका में आचार्य सिद्धसेन ने नियतिवाद की सिद्धि में कर्तृत्ववाद का खण्डन और नियतिवाद का स्वरूप प्रस्तुत किया है। (i) सर्वसत्त्वों के स्वभाव की नियतता- नियति के संबंध में सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं कि सभी सत्त्व या जीव के नित्य, अनन्तर, अव्यक्ति, सुख-दुःख तथा अभिजाति जो स्वभाव हैं, ये सभी पय, क्षीर अंकुर आदि के समान नियति के बल से होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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